Monday, November 12, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : वैदिक सभ्‍यता सरस्‍वती नदी के किनारे के क्षेत्र म...

जिज्ञासा(JIGYASA) : वैदिक सभ्‍यता सरस्‍वती नदी के किनारे के क्षेत्र म...: वैदिक सभ्‍यता सरस्‍वती नदी के किनारे के क्षेत्र जिसमें आधुनिक भारत के पंजाब और हरियाणा राज्‍य आते हैं, में विकसित हुई।आर्यों का एक वर्ग भार...

Wednesday, October 17, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : अनीता देसाई

जिज्ञासा(JIGYASA) : अनीता देसाई: युवा लेखकों में अनीता देसाई का नाम लिया जाता है जिन्‍होंने 'क्‍लीयर लाइट ऑफ दि डे' और 'इन कस्‍टडी' प्रसिद्ध उपन्‍यासों की रचना की।

Sunday, October 14, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : प्रगति के संकेत

जिज्ञासा(JIGYASA) : प्रगति के संकेत: भारत में लगातार तीन बार कराए गए पारिवारिक सर्वेक्षण के मुताबिक 15 साल तक लड़कियों के बीच बाल विवाह दर में गिरावट 18 साल से कम उम्र की लड़किय...

Thursday, October 11, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : ईपीसीजी योजना

जिज्ञासा(JIGYASA) : ईपीसीजी योजना: इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के निर्यातकों के लिए शून्य शुल्क वाली ईपीसीजी योजना उपलब्ध है। इसके अंतर्गत पूर्व उत्पादन, उत्पादन और पश्च उत्पादन के ...

Tuesday, October 9, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : वॉलमार्ट साल भर में अपनी 10,000 दुकानों के ज़रिये ...

जिज्ञासा(JIGYASA) : वॉलमार्ट साल भर में अपनी 10,000 दुकानों के ज़रिये ...: वॉलमार्ट साल भर में अपनी 10,000 दुकानों के ज़रिये 450 अरब डॉलर का कारोबार करती है. वॉलमार्ट इन सभी दुकानों पर तुलनात्मक रूप से सस्ता सामान ...

Sunday, October 7, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : दाचीगाम राष्‍ट्रीय उद्यान

जिज्ञासा(JIGYASA) : दाचीगाम राष्‍ट्रीय उद्यान: दाचीगाम राष्‍ट्रीय उद्यान जम्‍मू-कश्‍मीर राज्‍य का एक महत्‍व पूर्ण संरक्षि‍त क्षेत्र नेटवर्क है. श्रीनगर स्थित यह उद्यान आज विश्‍व के अद्वित...

Friday, October 5, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : कावेरी इंजन

जिज्ञासा(JIGYASA) : कावेरी इंजन: कावेरी इंजन गैस टरबाइन अनुसंधान प्रतिष्ठान पर 1300 घंटों से अधिक के विकास परीक्षण से गुजर चुका है.सरकार ने एलसीए के सभी तीन प्रकारों के लिए ...

जिज्ञासा(JIGYASA) : 'गुरिल्ला ट्रेक'

जिज्ञासा(JIGYASA) : 'गुरिल्ला ट्रेक': अमरीकी लेखक अलोंजो लियोंस के साथ निकाली गई इस किताब में एक नक्शा भी है.इस गाइड में उन पहाड़ों, गुफाओं, गाँवों और नदियों का जिक्र है जहाँ एक ...

Wednesday, September 26, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : ईश्वर चंद्र विद्यासागर

जिज्ञासा(JIGYASA) : ईश्वर चंद्र विद्यासागर: ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अनवरत प्रचार का ही नतीजा था कि विधवा पुनर्विवाह कानून, 1856 आखिरकार पारित हो सका।विद्यासागर का मानना था कि अंग्रेज...

जिज्ञासा(JIGYASA) : डॉ. भगवान दास

जिज्ञासा(JIGYASA) : डॉ. भगवान दास: डॉ. भगवान दास ने 'काशी हिन्दू विद्यापीठ' की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और 'सैंट्रल हिन्दू कॉलेज' का उसमें विलय कर दिया। डॉ. भगवान...

Friday, September 21, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : चौथी शताब्दी के इस दस्तावेज में ईसा मसीह की पत्नी ...

जिज्ञासा(JIGYASA) : चौथी शताब्दी के इस दस्तावेज में ईसा मसीह की पत्नी ...: चौथी शताब्दी के इस दस्तावेज में ईसा मसीह की पत्नी का जिक्र होने का दावा किया गया है.ये भोजपत्र कूड़े के एक ढेर में मिला था. शोधकर्ताओं ने इन...

Friday, September 14, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : ओंकारेश्वर बांध

जिज्ञासा(JIGYASA) : ओंकारेश्वर बांध: मध्यप्रदेश में ओंकारेश्वर बांध के विस्थापितों के जल सत्याग्रह को अत्यंत गंभीरता से लेते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें जमीन के...

Sunday, September 9, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : मार्कण्डेय पुराण

जिज्ञासा(JIGYASA) : मार्कण्डेय पुराण: मार्कण्डेय पुराण दुर्गा चरित्र एवं दुर्गा सप्तशती के वर्णन के लिए प्रसिद्ध है। इसे शाक्त सम्प्रदाय का पुराण कहा जाता है. आयुर्वेद के सिद्धा...

जिज्ञासा(JIGYASA) : साफ पानी और स्‍वच्‍छता

जिज्ञासा(JIGYASA) : साफ पानी और स्‍वच्‍छता: चेन्‍नई में शहरी जमीन के पानी के पुर्नभरण ने 1988 से 2002 के बीच जमीन के पानी का स्‍तर चार मीटर बढ़ा दिया.गांवों से शहरी इलाकों की तरफ पानी...

Saturday, September 8, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : शिव मूल रूप से एक आदिवासी देवता थे...

जिज्ञासा(JIGYASA) : शिव मूल रूप से एक आदिवासी देवता थे...: हिंदुओं के देव भगवान शिव भी मूल रूप से एक आदिवासी देवता थे लेकिन आर्यों ने भी उन्हें देवता के रूप मे स्वीकार कर लिया.रामायण के रचयिता महर्षि...

Friday, September 7, 2012

जिज्ञासा(JIGYASA) : 'सुधारक' को गोखले ने अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया.

जिज्ञासा(JIGYASA) : 'सुधारक' को गोखले ने अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया.: 'सुधारक' को गोखले ने अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया. 'सर्वेन्ट ऑफ़ सोसायटी' की स्थापना गोखले द्वारा किया गया महत्त्वपूर्ण कार्य था. उनका मानना थ...

जिज्ञासा(JIGYASA) : सुभद्रा कुमारी चौहान की पहली कविता प्रयाग से निकल...

जिज्ञासा(JIGYASA) : सुभद्रा कुमारी चौहान की पहली कविता प्रयाग से निकल...: 1913 में नौ वर्ष की आयु में सुभद्रा कुमारी चौहान की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका 'मर्यादा' में प्रकाशित हुई थी। यह कविता ‘नीम...

जिज्ञासा(JIGYASA) : 'बाघा जतीन'

जिज्ञासा(JIGYASA) : 'बाघा जतीन': जतीन्द्रनाथ मुखर्जी के बचपन का नाम 'जतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय' था। अपनी बहादुरी से एक बाघ को मार देने के कारण ये 'बाघा जतीन' के नाम से भी प्र...

Wednesday, September 5, 2012

विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाने की शुरुआत 1950 से हुई.

1948 में सात अप्रैल को ही डब्ल्यूएचओ की स्थापना हुई थी। उसी साल डब्ल्यूएचओ की पहली विश्व स्वास्थ्य सभा हुई, जिसमें सात अप्रैल से हर साल विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाने का फैसला लिया गया।विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाने की शुरुआत 1950 से हुई।

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस

1987 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य देशों ने एक प्रस्ताव द्वारा 7 अप्रैल 1988 से विश्व तम्बाकू निषेध दिवस मनाने का फ़ैसला किया था। इसके बाद साल 1988 में हर साल की 31 मई को तम्बाकू निषेध दिवस मनाने का फ़ैसला किया गया और तभी से 31 मई को तम्बाकू निषेध दिवस मनाया जाने लगा.

Sunday, September 2, 2012

डॉ. सरोज कुमार मिश्र

इतनी डिग्रियां सफलता की कहानी खुद ब खुद कहती हैं। शायद इसलिए वर्ष 1980 में टाटा स्टील से बतौर अप्रेंटिस करियर शुरू करने वाले डॉ. सरोज कुमार मिश्र इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में सहायक क्षेत्रीय निदेशक के पद तक पहुंच सके हैं। वर्ष 1979 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद डॉ. मिश्रा को टाटा स्टील में अप्रेंटिस के रूप में नौकरी मिली। वर्ष 1992 में समाज शास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त करने के बाद उन्हें टाटा स्टील में कर्मचारी शिक्षक बना दिया गया। वर्ष 2000 में डॉ. मिश्रा ने टाटा स्टील से त्यागपत्र दिया। वर्ष 2001 में उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से 'समाज कल्याण एवं सामुदायिक विकास में टाटा स्टील का योगदान' विषय पर पीएचडी की। दिसंबर 2002 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ओर से आयोजित राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा में सफल रहे। वर्ष 2004 में झारखंड पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा में सफलता हासिल कर वह प्राथमिक विद्यालय में सहायक शिक्षक बने। वर्ष 2005 में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ कर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान देना शुरू किया। वर्ष 2005 में वह जमशेदपुर वीमेंस कॉलेज में बीएड विभाग के अध्यक्ष बने। इसी वर्ष इग्नू के पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन हायर एजूकेशन कोर्स में सर्वाधिक अंक हासिल करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की ओर से उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। वर्ष 2009 में उनकी प्रोन्नति एमएड में कर दी गई। वर्ष 2012 से वह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ओर से स्थापित गांधी स्टडी सेंटर में अध्ययनरत छात्राओं के एमफिल की कक्षा का संचालन कर रहे थे। सन 1979 से 2012 के बीच डॉ. मिश्रा ने पांच विषयों में स्पेशलाइजेशन हासिल किया। लगातार 33 साल अध्ययन करते हुए उन्होंने अलग-अलग पाठ्यक्रमों में 19 डिग्रियां हासिल की। तीन शोध प्रबंधन तथा 100 से अधिक शोध पत्र का निदेशन किया। वर्ष 2009 में विवि अनुदान आयोग की ओर से दिए गये माइनर रिसर्च प्रोजेक्ट पर कार्य किया। पांच राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में हिस्सा लिया। फरवरी 2011 में संचालित की गई इग्नू की नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल होते समय शायद उन्हें भी यह यकीन न रहा हो कि परीक्षा के एक साल बाद जारी परिणाम में वह सहायक क्षेत्रीय निदेशक बन जाएंगे। नई नियुक्ति का पत्र मिलने के बाद डॉ. मिश्रा ने शनिवार को जमशेदपुर वीमेंस कॉलेज से अपना त्यागपत्र दे दिया।

Friday, August 24, 2012

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार के संस्कृति विभाग के अन्तर्गत एक सरकारी एजेंसी है.भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण का प्रमुख कार्य राष्‍ट्रीय महत्‍व के प्राचीन स्‍मारकों तथा पुरातत्‍वीय स्‍थलों और अवशेषों का रखरखाव करना है.ए.एस.आई. अपने वर्तमान रूप में सन १८६१ में ब्रिटिश शासन के अधीन सर अलेक्ज़ैंडर कन्निघम द्वारा, तत्कालीन वाइसरॉय चार्ल्स जॉन कैनिंग की सहायता से स्थापित हुआ था।

नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक की तीन रिपोर्ट...

इसके मुताबिक 2004 से 2009 के दौरान कोयला खदानों का आबंटन जिस तरीके से किया गया, उससे संबंधित निजी कंपनियों को अप्रत्याशित लाभ पहुंचा और सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।
दूसरी रिपोर्ट- इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड््डे को विकसित करने वाली कंपनी डायल को दो सौ उनतालीस एकड़ जमीन महज सौ रुपए सालाना लीज-शुल्क पर दे दी गई, जबकि इस जमीन की मौजूदा कीमत चौबीस हजार करोड़ रुपए है।
तीसरी रिपोर्ट- रिलायंस पॉवर को उनतीस हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का फायदा पहुंचाने का आरोप लगाते हुए कहा गया है कि कंपनी के सासन बिजली संयंत्र के लिए आबंटित कोयला खदान का इस्तेमाल उसकी अन्य परियोजनाओं के लिए भी करने की छूट दे दी गई.

Saturday, August 18, 2012

सुभाष चंद्र बोस माँ काली के भक्त थे.

सुभाष चंद्र बोस माँ काली के भक्त थे.१९2६ में उन्होंने हरिचरण बागची को लिखा,भय पर विजय प्राप्त करने का उपाय है. शक्ति विशेष रूप से दुर्गा काली आद्याशक्ति कि साधना करना.

पद्मावत

यह रचना मलिक मुहम्मद जायसी की है. यह हिंदी की अवधी बोली में है और चौपाई दोहों में लिखी गई है. उन्होंने नायक रतनसेन और नायिका पद्मावती की प्रेमकथा को विस्तारपूर्वक कहते हुए प्रेम की साधना का संदेश दिया है.पद्मावत हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत सूफी परम्परा का प्रसिद्ध महाकाव्य है.

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

महर्षि वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी।महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ाः
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥'

(अरे बहेलिये, तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी)

'दसनामी संप्रदाय'

शंकराचार्य ने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके 'दसनामी संप्रदाय' बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया.शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहाँ हुआ।

Wednesday, August 15, 2012

महात्‍मा गांधी

महात्‍मा गांधी का कहना था कि‍ अपने प्रयोजन में दृढ़ वि‍श्‍वास रखने वाला इति‍हास के रूख को बदल सकता है।

पथेर पांचाली

पथेर पांचाली १९५५ में प्रदर्शित हुई और बहुत लोकप्रिय रही। भारत और अन्य देशों में भी यह लम्बे समय तक सिनेमा में लगी रही।

Monday, August 13, 2012

जीवन के रंग .....: सिर दर्द

जीवन के रंग .....: सिर दर्द

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

Thursday, July 26, 2012

सुलगता भारत --असम में हिंसा भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी और तुष्टिकरण का प्रतीक है

असम में हिंसा भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी और तुष्टिकरण का प्रतीक है .इससे यह भी पता चलता है कि हमें आग लग जाने पर कुआं खोदने की पुरानी बिमारी है .तरुण गोगोई की सरकार लगातार तीसरी बार असम में सत्ता में आई तो इसका मतलब ये नहीं कि वो हाथ पर हाथ धरे बैठ सकती है या उसे ऐसा करने का जनाधार मिला है .समय रहते न चेतना आज के लोकतांत्रिक सरकारों की आदत बनती जा रही है .इस तरह की आदतों का शिकार वैसी पार्टियाँ अधिक है जिन्हें मतदाता लगातार चुनकर भजते रहते है .उनके नेताओं में कहीं न कही सामंतवादी सोच का उद्भव होने लगा है .यह लोकतांत्रिक सामंतवाद मध्यकालीन सामंतवाद से अधिक खतरनाक है .आज सुनियोजित ढंग से आम आदमी को प्रताड़ित किया जा रहा है ....कुछ नए नेताओं को तो व्यवस्थित रूप से इसकी ट्रेनिंग डी जा रही है .

एक कहावत है , जैसा राजा वैसी प्रजा. आज के सन्दर्भ में भी इस कहावत की अहमियत उतनी ही है जितनी राजशाही के समय में थी बल्कि मेरा तो मानना है की आज यह अधिक सटीक है . लोकतांत्रिक अंगों की दुर्बलता देख कुछ असामाजिक तत्व इसका भरपूर फायदा उठाते है और उन्हें कुछ विकृत मानसिकता वाले नेताओं का भी भरपूर समर्थन मिलता है. असम के मौजूदा हालात में सरकार निक्कमी दिख रही है या फिर उसको इस जनसंहार और हिंसा में कुछ फायदा दिख रहा है .सबको पता है असम के कोकराझार ,चिरांग आदि जिलों में आदिवासियों और मुस्लिमों के मध्य हिंसा कोई अनोखी घटना नहीं है . अभी चार साल पहले ही २००८ में ऐसी वारदातें हो चुकी है . फिर भी सबक न लेना सरकार के लकवाग्रस्त होने की ही निशानी है .

Sunday, July 22, 2012

उदासी भरे दिन, कभी तो ढलेंगे...

कहाँ तक ये मन को, अँधेरे छलेंगे
उदासी भरे दिन, कभी तो ढलेंगे

कभी सुख, कभी दुःख, यही जिन्दगी है
ये पतझड का मौसम, घड़ी दो घड़ी है
नए फूल कल फिर डगर में खिलेंगे
उदासी भरे दिन ...

भले तेज कितना हवा का हो झोंका
मगर अपने मन में तू रख ये भरोसा
जो बिछड़े सफ़र में तुझे फिर मिलेंगे
उदासी भरे दिन ...

कहे कोई कुछ भी, मगर सच यही है
लहर प्यार की जो, कही उठ रही है
उसे एक दिन तो, किनारे मिलेंगे
उदासी भरे दिन ...

Thursday, July 12, 2012

हिंदूकुश

यह मध्य एशिया की विस्तृत पर्वतमाला है, जो पामीर क्षेत्र से लेकर काबुल के पश्चिम में कोह-इ-बाबा तक 800 किमी लंबाई में फैली हुई है। यह पर्वतमाला हिमालय का ही प्रसार है, केवल बीच का भाग सिंधु नद द्वारा पृथक्‌ हुआ है। प्राचीन भूगोलविद् इस पर्वतश्रेणी को भारतीय कॉकेशस (Indian Caucasus) कहते थे। इस पर्वतमाला का 320 किमी लंबा भाग अफगानिस्तन की दक्षिणी सीमा बनाता है। इस पर्वतमाला का सर्वोच्च शिखर तिरिचमीर है जिसकी ऊँचाई 7712 मी है। इसमें अनेक दर्रें हैं जो 3792 मी से लेकर 5408 मी की ऊँचाई तक में हैं। इन दर्रों में वरोगहिल (Baroghil) के दर्रें सुगम हैं। हिंदूकुश आब-इ-पंजा से धीरे धीरे पीछे हटने लगता है और दक्षिण पश्चिम की ओर मुड़ जाता है तथा इसकी ऊँचाई बढ़ने लगती हैं और प्रमुख शिखरों की ऊँचाई 7200 मी से अधिक तक पहुँच जाती है। इस दक्षिणपश्चिम की मोड़ में 64 किमी से 80 किमी तक शिखरों में अनेक दर्रें हैं। इनमें 4500 मी. की ऊँचाई पर स्थित दुराह समूह के दर्रें महत्वपूर्ण हैं जो चित्राल एवं ऑक्सस (Oxus) नदियों को जोड़नेवाली महत्वपूर्ण कड़ियाँ हैं। खाबक दर्रा वर्ष भर चालू रहता है और बदकशान से होता हुआ सीधे काबुल तक चला गया है। यह दर्रा महत्वपूर्ण काफिलापथ है। हिंदूकुश के उत्पत्ति स्थान से चार प्रमुख नदियाँ ऑक्सस, यारकंद दरिया, कुनार और गिलगिट निकलती हैं। हिंदूकुश पर्वतमाला की चार प्रमुख शाखाएँ हैं। इन सब शाखाओं से नदियाँ निकलकर मध्य एशिया के सभी प्रदेशों में बहती है।

Tuesday, May 8, 2012

चार्ल्स स्पेंसर चैप्लिन

ऐसा मानना है की वे अपनी असली ज़िन्दगी में भी अपने जूते उलटे पहनते थे. चार्ली का जन्म 16 अप्रैल 1889 में वालवार्थ शहर, लन्दन में हुआ था. इनका असली नाम चार्ल्स स्पेंसर चैप्लिन था. चैप्लिन, फ़िल्मी दुनिया के सबसे प्रभावशाली व रचनात्मक व्यक्तियों में से एक थे. वे अपनी अधिकांश फिल्मों में अभिनय, पटकथा लेखन, निर्देशन और निर्देशक का कार्य करते थे. उनकी ज़िन्दगी प्रशंसा और विवाद दोनों से भरी हुई थी.

"तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं है चार्ली...

१९४० में जब चार्ली ने अपनी फ़िल्म द ग्रेट डिक्टेटर पर काम करना शुरू किया तो अडोल्फ़ हिटलर का मज़ाक उड़ाती इस फ़िल्म की सफलता को लेकर उनके मन में गम्भीर संशय थे. वे अपने दोस्तों से लगातार पूछा करते थे - "सही बताना. मुझे इस फ़िल्म को बनाना चाहिये या नहीं? मान लिया हिटलर को कुछ हो गया तो? या जाने कैसी परिस्थितियां बनें?" चैप्लिन के प्रैय मित्र डगलस फ़ेयरबैंक्स ने चार्ली से कहा - "तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं है चार्ली! यह मानव इतिहास की सबसे चमत्कारिक ट्रिक होने जा रही है - कि दुनिया का सबसे बड़ा खलनायक और दुनिया का सनसे बड़ा मसखरा, दोनों एक जैसे दिखें. अब अगर मगर बन्द करो और फ़िल्म में जुट जाओ."

चार्ली चैप्लिन

एक दफ़ा चार्ली चैप्लिन अपने मित्र मशहूर चित्रकार पाब्लो पिकासो से मिलने गए. चैप्लिन का बचपन लन्दन के ईस्ट एन्ड की गुरबत में बिया था और बचपन में सीखे गए उसके सबक ताज़िन्दगी उनके साथ रहे. पाब्लो किसी पेन्टिंग पर काम कर रहे थे. बातों बातों में उनके ब्रश से पेन्ट के कुछ छींटे चार्ली की नई सफ़ेद पतलून पर लग गए. पाब्लो ने झेंपते हुए माफ़ी मांगी और पतलून से रंग साफ़ करने के लिए किसी चीज़ को ढूंढने लगे. चार्ली ने तुरन्त कहा - "छोड़ो पाब्लो! अपनी कलम निकाल कर मेरी पतलून पर अपने दस्तख़त कर दो बस!"

चार्ली चैप्लिन

अमेरिका से साम्यवाद का सफाया करने की मुहिम में जुटी एफबीआई को डर सता रहा था कि चैप्लिन कम्युनिस्ट हैं। एफबीआई का यह भी मानना था कि चैप्लिन का असली नाम इजरायल थोर्नस्टेन था। इसके लिए उन्होंने एमआई-5 से सहायता मांगी थी। हालांकि एमआई-5 चैप्लिन के जन्म से संबंधित जानकारियों का पता लगाने में नाकामयाब रही और उसे इस बात का भी कोई सुबूत नहीं मिला कि चैप्लिन अमेरिका के लिए किसी तरह का खतरा बन सकते थे।

चार्ली चैप्लिन

२३ सितम्बर १९३१ को जब गाँधीजी और चार्ली चैप्लिन संयोग से लंदन में थे तो दोनों की मुलाकात हुई। इस मुलाकात के वक्त गाँधीजी और चार्ली दोनों के प्रशंसकों का हुजूम रास्ते पर जमा हो गया था। बहुत भीड़ हो गई। ऐसा कहा जाता है कि इस संक्षिप्त मुलाकात में गाँधीजी ने चार्ली से कहा था कि असली आजादी तो तभी मिल सकती है जब हम गैर जरूरी चीजों से छूट सके। कहा जाता है कि इस मुलाकात के बाद ही चार्ली ने गाँधी जी के विचारों को जाना और समझा कि वे बढ़ते मशीनीकरण हैं। इस विषय पर बाद के वर्षों में चार्ली ने "मॉडर्न टाइम्स" मर्मस्पर्शी फिल्म बनाई थी जो उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में है।

चार्ली चैप्लिन

ब्रिटेन में पैदा हुए और अमेरिका में जाकर दुनियाभर में मशहूर हुए चार्ल्स ने घोर गरीबी देखी। माँ-पिता को अलग होते देखा। भूख और बदलते रिश्तेदारों को देखा। घर के लगातार बदलते पते देखे। और फिर आखिरकार अपनी माँ को इन तमाम परिस्थितियों के बावजूद यह महान कलाकार दुखी लोगों के होंठों पर हँसी खिलाने के लिए अभिनय करता रहा।

विकास की कीमत

कभी-कभी लगता है की विकास की कीमत कुछ ज्यादा चुकानी पड़ रही है ।

Tuesday, April 24, 2012

वातावरण

हमारे चारों ओर की हवा, वस्तुएं और हमारा समाज जिसमें हम रहते हैं वातावरण का अभिन्न अंग हैं । ये हमारे जीवन के ढंग को पारिभाषित करने में अपनी अहम भूमिका निभाता है ....
प्रकृति से लडता हुआ मनुष्‍य बहुत ही विकसित अवस्‍था तक पहुंच चुका है , पर लोगों के जीवन स्‍तर के मध्‍य का फासला जितना बढता जा रहा है , भाग्‍य की भूमिका उतनी अहम् होती जा रही है....
हमारे समाज का वातावरण इतना दूषित हो गया है की, प्रत्येक व्यक्ति की सोच में नकारात्मक बातों ने डेरा जमा लिया है. शायद वह इस भ्रष्ट व्यवस्था से कुंठित हो चुका है .यही कारण है हम प्रत्येक व्यक्ति को सिर्फ संदेह की द्रष्टि से ही देखते हैं,जिसका भरपूर लाभ हमारे राजनेता उठाते हैं.वे अपने भ्रष्ट कारनामों को बड़ी सफाई से झुठला कर अपने विरोधियों को जनता की नजरों में भ्रष्ट एवं अपराधी सिद्ध करने में कामयाब हो जाते हैं.जनता उनके बहकावे में आकर क्रांति कारी व्यक्तियों के विरुद्ध अपनी सोच बना लेती है और नेताओं के काले कारनामों को भूल जाती है..जनता के लिए यह सोचना मुश्किल हो गया है की आज के भ्रष्ट युग में भी कोई इमानदार हो सकता है, कोई देश भक्त भी हो सकता है, जो देश के लिए निःस्वार्थ होकर संघर्ष कर सकता है....

नेशनल ओशियानिक एंड एटमोसफेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) के नेतृत्व में काम कर रही अंतरराष्ट्रीय टीम वातावरण में हाइड्रॉक्सिल रेडिकल के स्तर की गणना की। यह वातावरण के रासायनकि संतुलन में अहम भूमिका निभाता है।
वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि सालाना आधार पर हाइड्रॉक्सिल के स्तर में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। इससे पहले कुछ अध्ययनों में कहा गया था कि इसके स्तर में 25 फीसदी तक का फर्क पड़ा है। लेकिन नया अध्ययन इस बात को खारिज करता है।

एनओएए के ग्लोबल मॉनिटरिंग विभाग में काम करने वाले मुख्य रिसर्चर स्टीफन मोंटत्सका बताते हैं, 'हाइड्रॉक्सिल के स्तर की नई गणना से वैज्ञानिकों को पता चला है कि वातावरण की खुद को साफ करने की क्षमता कितनी है। अब हम कह सकते हैं कि प्रदूषकों से छुटकारा पाने की वातावरण की क्षमता अब भी बनी हुई है। अब तक हम इस बात को तसल्ली से नहीं कह पा रहे थे।'

प्रकृति के इस रम्य वातावरण को देख मन आह्लादित हो उठता है। जो प्रसन्नता मन को भोरकालीन वातावरण में मिलती है, वह अवर्णनीय है। सुबह पंक्षियों का कलरव, मंद गति से बहती शीतल हवा, बयार में शांत पेड़ पौधे अपने अप्रितम सौंदर्य का दर्शन देते हैं, दैनिक जीवन की शुरूआत से पहले बिल्कुल शांत और निर्वाण रूप होता है सुबह का।

पौधे अपने निर्विकार रूप में खडे होते हैं, पेड़ पौधों में जान होती है परंतु वे स्व से अपने पत्तियों को खड़का नहीं सकते, वे तो प्रकृति प्रदत्त वातावरण पर आश्रित होते हैं। भोर में पेड़ पौधों पर पड़ी ओस, मोती सा आभास देती है, और जलप्लवित पत्तियों से ऊर्जा संचारित होती है, वह ऊर्जा लेकर हम अपने जीवन की शुरूआत करते हैं।

डायबिटीज रोगियों पर वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। आइए जानें डायबिटीज रोगियों को वातावरण कैसे प्रभावित करता है।

वातावरण कई तरह का हो सकता है। चाहे घर का माहौल हो, कार्यालय का माहौल हो। आसपास के लोगों का माहौल हो या फिर किस जगह पर कैसे आप जाते हैं इन सबका डायबिटिक के स्‍वास्‍थ्‍य पर बहुत असर पड़ता है।
धूम्रपान और नशीले पदार्थ- मान लीजिए कोई डायबिटिक मरीज ऐसे लोगों के साथ रहता है जो धूम्रपान बहुत करते हैं, इतना ही नहीं एल्‍‍कोहल और नशीले पदार्थों का सेवन भी करते हैं तो निश्चित रूप से डायबिटीज के रोगी पर इसका नकारात्म‍क असर पड़ेगा क्योंकि डायबिटीज मरीज ना सिर्फ इन चीजों का आदी हो सकता है बल्कि धूम्रपान का धुआं भी डायबिटीज मरीज को हृदय जैसी गंभीर बीमारियों का शिकार बना सकता है। अगर ये कहें कि डायबिटीज मरीज पर धूम्रपान का असर बुरा पड़ता है तो यह कहना गलत ना होगा।
जगह- यदि डायबिटीज मरीज किसी कारखाने में काम करता है या फिर ऐसी जगह काम करता है जहां केमिकल इत्यादि का काम होता है या फिर जहां बहुत अधिक गंदगी है तो इसका असर डायबिटीज मरीज को और अधिक बीमार बना सकता है और डायबिटीज रोगी को कई और बीमारियां या संक्रमण होने की आशंका बढ़ जाती है.
प्रदूषण- प्रदूषण का डायबिटीज मरीज के स्‍वास्‍थ्‍य पर बहुत असर पड़ता है। अगर डायबिटीक पेशेंट प्रदूषण वाले स्थान पर रहता है तो डायबिटीज मरीज को सांस संबंधी बीमारियां होने की आंशका रहती है। इतना ही नहीं प्रदूषण के कारण डायबिटीज से होने वाली समस्याएं बढ़ जाती हैं है। यह बात शोधों में भी साबित हो चुकी है।

Thursday, March 29, 2012

मधुशाला

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।
प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।
प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।
भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।
मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।’। ६।
चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
‘दूर अभी है’, पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।
मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।
मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।
सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।
जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।
मेहंदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।
हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।
लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।
जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।
बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
‘होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले’
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।
लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।
बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला’
‘और लिये जा, और पीये जा’, इसी मंत्र का जाप करे’
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।
बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।
बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।
सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ’ हाला,
धूमधाम औ’ चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,
जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।
बुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, चंचल प्याला,
छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,
पटे कहाँ से, मधुशाला औ’ जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।
बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,
पी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला,
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।
हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।
नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।
बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।
सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,
मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,
मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो ‘जय राम’ न मिलकर, कहा करो ‘जय मधुशाला’।।२९।
सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।
तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,
सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।
अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।
पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर परिमल-मधु-सुरिभत हाला,
माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।
प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।
मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।
साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,
तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,
अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।
उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।
अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला
किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।
साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,
जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।
वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला,
विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।
चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला,
मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते,
चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।
घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला,
अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं,
हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।
हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला,
चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।
धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला,
वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५।
दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।
पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।
सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।
बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।
मुसलमान औ’ हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।
कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१।
और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।
आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।
यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।
सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५।
वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में कहलाती ‘साकीबाला’,
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे!
किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।
कभी न सुन पड़ता, ‘इसने, हा, छू दी मेरी हाला’,
कभी न कोई कहता, ‘उसने जूठा कर डाला प्याला’,
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।
श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८।
एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला,
अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला,
रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९।
बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०।
कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला,
हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला,
आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है,
कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१।
आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला
आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,
छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,
एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२।
आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३।
सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला
छलक रही है जिसमंे माणिक रूप मधुर मादक हाला,
मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ
जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।
दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला,
भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ,
अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ -अदाई मधुशाला।।६५।
छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया ‘जानेवाला’,
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६।
क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला,
क्या जीना, निरंिचत न जब तक साथ रहे साकीबाला,
खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे,
मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७।
मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला!
मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ,
सिंधँु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८।
क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला,
क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला,
थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९।
लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०।
कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला,
दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला,
मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,
जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१।
ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला,
गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा,
दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२।
क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला,
मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला,
काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३।
प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला,
नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला,
जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से,
जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४।
अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,
क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,
तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई,
हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५।
यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,
पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला,
क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के
डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।७६।
यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला,
यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर,
मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।।७७।
याद न आए दूखमय जीवन इससे पी लेता हाला,
जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है,
पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।
गिरती जाती है दिन प्रतिदन प्रणयनी प्राणों की हाला
भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदन सुभगे मेरा तन प्याला,
रूठ रहा है मुझसे रूपसी, दिन दिन यौवन का साकी
सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९।
यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंितम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।८०।
ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला,
पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला,
हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले
कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१।
मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।
मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।
और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।।८४।
नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला
काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,
जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की
धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५।
ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।
यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,
चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला,
स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७।
पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों – साकी बाला,
नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है,
कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।
शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
‘और, और’ की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९।
जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,
जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०।
देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला,
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
‘बस अब पाया!’- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।
कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला,
छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती,
आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।
‘आ आगे’ कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३।
हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला,
अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला,
दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,
रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-मिलते मधुशाला।।९४।
प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,
दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५।
मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला,
मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,
हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई
‘दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!’।९६।
मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,
यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला,
मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में,
‘भाग्य प्रबल, मानव निर्बल’ का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७।
किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला,
ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला,
किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया,
किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८।
उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला,
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९।
साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला,
सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला,
रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते,
जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००।
साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अभिलाषा से, करते सबको मतवाला,
हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो,
हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१।
साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला,
पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, परिश्रम लूट लिया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२।
जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला,
जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की जिहवा से हैं कभी निकलते शाप नहीं,
दुखी बनाया जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३।
नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला,
नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तनिक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४।
मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला,
क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला,
साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा,
प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५।
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला,
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला,
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से!
मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला।।१०६।
देने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला,
देने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दुर्बलता मैं कहा नहीं कुछ भी करता,
किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७।
एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था,
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८।
बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला,
भाँत भाँत का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।
एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आलिंगन करते थे,
आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।
जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,
छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला,
आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११।
कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला,
कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला,
कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है,
प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२।
बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला,
पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३।
छोड़ा मैंने पंथ मतों को तब कहलाया मतवाला,
चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला,
अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है,
क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४।
यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला,
तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला,
जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को
अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५।
कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला,
टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला,
कितने साकी अपना अपना काम खतम कर दूर गए,
कितने पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।११६।
कितने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला,
कितने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला,
कितनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी,
कितने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७।
दर दर घूम रहा था जब मैं चिल्लाता – हाला! हाला!
मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला,
मिलन हुआ, पर नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में,
मैं अब जमकर बैठ गया हूँ, घूम रही है मधुशाला।।११८।
मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिंबित करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९।
किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला,
इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की है हाला,
अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०।
वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।
मतवालापन हाला से लेकर मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,
साकी से मिल, साकी में मिल, अपनापन मैं भूल गया,
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।
मदिरालय के द्वार ठोकता किस्मत का छूंछा प्याला,
गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।
कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,
कहाँ गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।
‘मय’ को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, ‘हाला’
‘मीना’ को ‘मधुपात्र’ दिया ‘सागर’ को नाम गया ‘प्याला’,
क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी
‘मय-महिफल’ अब अपना ली है मैंने करके ‘मधुशाला’।।१२६।
कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७।
जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,
जितना हो जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।
जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,
जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,
आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।
हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला
हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की
हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।
मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।
यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।
कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।
विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।
बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।
पिरिशष्ट से
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।
मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।
बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।
पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।

Friday, March 23, 2012

अपने को आज़ाद करूँ मैं! क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!

क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!

अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी घड़ियों को
किन-किन से आबाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!

याद सुखों की आँसू लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूँ जब अपने से
अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!

दोनों करके पछताता हूँ,
सोच नहीं, पर मैं पाता हूँ,
सुधियों के बंधन से कैसे
अपने को आज़ाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
........................ हरिवंशराय बच्चन.

Tuesday, March 13, 2012

जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो

मलयज का झोंका बुला गया
खेलते से स्पर्श से
रोम रोम को कंपा गया
जागो जागो
जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो

पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली
सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली
नीम के भी बौर में मिठास देख
हँस उठी है कचनार की कली
टेसुओं की आरती सजा के
बन गयी वधू वनस्थली

स्नेह भरे बादलों से
व्योम छा गया
जागो जागो
जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो

चेत उठी ढीली देह में लहू की धार
बेंध गयी मानस को दूर की पुकार
गूंज उठा दिग दिगन्त
चीन्ह के दुरन्त वह स्वर बार
सुनो सखि! सुनो बन्धु!
प्यार ही में यौवन है यौवन में प्यार!

आज मधुदूत निज
गीत गा गया
जागो जागो
जागो सखि वसन्त आ गया, जागो!

.....अज्ञेय

Saturday, March 10, 2012

एकला चलो रे...

‘यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे तबे एकला चलो रे।’.................
ये गाना ही नहीं बल्कि जीवन दर्शन है .कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर, एक व्यक्ति का नहीं एक युग और एक संस्था का नाम है .
गाँधी जी इसी दर्शन के सहारे नोवाखली में साम्प्रदायिकता के खिलाफ अकेले खड़े हो गए थे .
इस जीवन दर्शन से प्रेरणा प्राप्त होती है .एकला चलो रे ...कामयाबी और मानसिक संतुष्टि का दूसरा नाम है .

यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।

एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
यदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!

यदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न जाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दलो रे!

यदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
यदि झड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपुन बुकेर पांजर जालियेनिये एकला चलो  रे!

रामकृष्ण परमहंस

सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया। आर्थिक कठिनाइयां आईं। बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बडे भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता(कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को अपने साथ कोलकाता ले गए। रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत निश्छल, सहज और विनयशील था। संकीर्णताओं से वह बहुत दूर थे। अपने कार्यो में लगे रहते थे।

रामकृष्ण बहुत-कुछ अनपढ़ मनुष्य थे, स्कूल के उन्होंने कभी दर्शन तक नहीं किए थे। वे न तो अंग्रेजी जानते थे, न वे संस्कृत के ही जानकार थे, न वे सभाओं में भाषण देते थे, न अखबारों में वक्तव्य। उनकी सारी पूंजी उनकी सरलता और उनका सारा धन महाकाली का नाम-स्मरण मात्र था।

दक्षिणेश्वर की कुटी में एक चौकी पर बैठे-बैठे वे उस धर्म का आख्यान करते थे, जिसका आदि छोर अतीत की गहराइयों में डूबा हुआ है और जिसका अंतिम छोर भविष्य के गहवर की ओर फैल रहा है। निःसंदेह रामकृष्ण प्रकृति के प्यारे पुत्र थे और प्रकृति उनके द्वारा यह सिद्ध करना चाहती थी कि जो मानव-शरीर भोगों का साधन बन जाता है, वही चाहे तो त्याग का भी पावन यंत्र बन सकता है।

द्रव्य का त्याग उन्होंने अभ्यास से सीखा था, किन्तु अभ्यास के क्रम में उन्हें द्वंदों का सामना करना नहीं पड़ा। हृदय के अत्यंत निश्छल और निर्मल रहने के कारण वे पुण्य की ओर संकल्प-मात्र से ब़ढ़ते चले गए। काम का त्याग भी उन्हें सहज ही प्राप्त हो गया। इस दिशा में संयमशील साधिका उनकी धर्मपत्नी माता शारदा देवी का योगदान इतिहास में सदा अमर रहेगा।
अद्वैत साधना की दीक्षा उन्होंने महात्मा तोतापुरी से ली, जो स्वयं उनकी कुटी में आ गए थे। तंत्र-साधना उन्होंने एक भैरवी से पाई जो स्वयं घूमते-फिरते दक्षिणेश्वर तक आ पहुंची थीं। उसी प्रकार इस्लामी साधना के उनके गुरु गोविन्द राय थे जो हिन्दू से मुसलमान हो गए थे। और ईसाइयत की साधना उन्होंने शंभुचरण मल्लिक के साथ की थी जो ईसाई धर्म के ग्रंथों के अच्छे जानकार थे।

सभी साधनाओं में रमकर धर्म के गूढ़ रहस्यों की छानबीन करते हुए भी काली के चरणों में उनका विश्वास अचल रहा। जैसे अबोध बालक स्वयं अपनी चिंता नहीं करता, उसी प्रकार रामकृष्ण अपनी कोई फिक्र नहीं करते थे। जैसे बालक प्रत्येक वस्तु की याचना अपनी मां से करता है, वैसे ही रामकृष्ण भी हर चीज काली से मांगते थे और हर काम उनकी आज्ञा से करते थे। कह सकते हैं कि रामकृष्ण के रूप में भारत की सनातन परंपरा ही देह धरकर खड़ी हो गई थी।
किसी धनी भक्त ने एक बार श्री रामकृष्ण परमहंस को एक कीमती दुशाला भेंट में दिया। स्वामीजी ऐसी वस्तुओं के शौकीन नहीं थे लेकिन भक्त के आग्रह पर उन्होंने भेंट स्वीकार कर ली. उस दुशाला को वह कभी चटाई की तरह बिछाकर उसपर लेट जाते थे कभी उसे कम्बल की तरह ओढ़ लेते थे.
दुशाले का ऐसा उपयोग एक सज्जन को ठीक नहीं लगा। उसने स्वामीजी से कहा – “यह तो बहुत मूल्यवान दुशाला है. इसका बहुत जतन से प्रयोग करना चाहिए. ऐसे तो यह बहुत जल्दी ख़राब हो जायेगी!”
परमहंस ने सहज भाव से उत्तर दिया – “जब सभी प्रकार की मोह-ममता को छोड़ दिया है तो इस कपड़े से कैसा मोह करूँ? क्या अपना मन भगवान की और से हटाकर इस तुच्छ वस्तु में लगाना उचित होगा? ऐसी छोटी वस्तु की चिंता करके अपना ध्यान बड़ी बात से हटा देना कहाँ की बुद्धिमानी है?”
ऐसा कहकर उन्होंने दुशाले के एक कोने को पास ही जल रहे दिए की लौ से छुआकर थोडा सा जला दिया और उस सज्जन से कहा – “लीजिये, अब न तो यह दुशाला मूल्यवान रही और न सुन्दर। अब मेरे मन में इसे सहेजने की चिंता कभी पैदा नहीं होगी और मैं अपना सारा ध्यान भगवान् की और लगा सकूँगा.”
वे सज्जन निरुत्तर हो गए. परमहंस ने भक्तों को समझाया कि सांसारिक वस्तुओं से मोह-ममता जितनी कम होगी, सुखी जीवन के उतना ही निकट पहुंचा जा सकेगा।
सतत प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया। कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वर स्थित काली माता के मन्दिर में अग्रज रामकुमार ने पुरोहित का दायित्व साँपा, रामकृष्ण इसमें नहीं रम पाए। कालान्तर में बड़े भाई भी चल बसे। अन्दर से मन ना करते हुए भी रामकृष्ण मंदिर की पूजा एवं अर्चना करने लगे। रामकृष्ण मां काली के आराधक हो गए। बीस वर्ष की अवस्था में अनवरत साधना करते-करते माता की कृपा से इन्हें परम दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ। इनके प्रिय शिष्य विवेकानन्द ने एक बार इनसे पूछा-महाशय! क्या आपने ईश्वर को देखा है? महान साधक रामकृष्ण ने उत्तर दिया-हां देखा है, जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूं, ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे कहीं अधिक स्पष्टता से। वे स्वयं की अनुभूति से ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास दिलाते थे। आध्यात्मिक सत्य, ज्ञान के प्रखर तेज से भक्ति ज्ञान के रामकृष्ण पथ-प्रदर्शक थे। काली माता की भक्ति में अवगाहन करके वे भक्तों को मानवता का पाठ पढाते थे।
रामकृष्ण के शिष्य नाग महाशय ने गंगातट पर जब दो लोगों को रामकृष्ण को गाली देते सुना तो क्रोधित हुए किंतु प्रभु से प्रार्थना की कि उनके मन में श्रद्धा जगाकर रामकृष्ण का भक्त बना दें। सच्ची भक्ति के कारण दोनों शाम को रामकृष्ण के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे। रामकृष्ण ने उन्हें क्षमा कर दिया।
एक दिन परमहंस ने आंवला मांगा। आंवले का मौसम नहीं था। नाग महाशय ढूंढते-ढूंढते वन में एक वृक्ष के नीचे ताजा आंवला रखा पा गये, रामकृष्ण को दिया। रामकृष्ण बोले-मुझे पता था-तू ही लेकर आएगा। तेरा विश्वास सच्चा है।
रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे। अत: तन से शिथिल होने लगे। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हंस देते थे। इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा-वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तडप रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी। इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे। विवेकानन्द ने कहा काली मां से रोग मुक्ति के लिए आप कह दें। परमहंस ने कहा इस तन पर मां का अधिकार है, मैं क्या कहूं, जो वह करेगी मेरे लिए अच्छा ही करेगी। मानवता का उन्होंने मंत्र लुटाया।

बंगाल के हुगली ज़िले में एक ग्राम है कामारपुकुर। यहीं 18 फ़रवरी सन 1836 को बालक गदाधर का जन्म हुआ। गदाधर के पिता खुदीराम चट्टोपाध्याय निष्ठावान ग़रीब ब्राह्मण थे।
गदाधर की शिक्षा तो साधारण ही हुई, किंतु पिता की सादगी और धर्मनिष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा। सात वर्ष की अवस्था में ही पिता परलोक वासी हुए।
सत्रह वर्ष की अवस्था में बड़े भाई रामकुमार के बुलाने पर गदाधर कलकत्ता आये और कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर-मन्दिर में पूजा के लिये नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने माँ महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया। वे भाव में इतने तन्मय रहने लगे कि लोग उन्हें पागल समझते। वे घंटों ध्यान करते और माँ के दर्शनों के लिये तड़पते। एक दिन अर्धरात्रि को जब व्याकुलता सीमा पर पहुँची, उन जगदम्बा ने प्रत्यक्ष होकर कृतार्थ कर दिया। गदाधर अब परमहंस रामकृष्ण ठाकुर हो गये।
बंगाल में बाल-विवाह की प्रथा है। गदाधर का भी विवाह बाल्यकाल में हो गया था; उनकी बालिका पत्नी जब दक्षिणेश्वर आयी, गदाधर वीतराग परमंहस हो चुके थे। माँ शारदामणि का कहना है- 'ठाकुर के दर्शन एक बार पा जाती हूँ, यही क्या मेरा कम सौभाग्य है?' परमहंस जी कहा करते थे- 'जो माँ जगत का पालन करती हैं, जो मन्दिर में पीठ पर प्रतिष्ठित हैं, वही तो यह हैं।' ये उद्गार थे उनके अपनी पत्नी, माँ शारदामणि के प्रति।
अधिकारी के पास मार्ग निर्देशक स्वयं चले आते हैं। उसे शिक्षा-दाता की खोज में भटकना नहीं पड़ता। एक दिन सन्ध्या को सहसा एक वृद्धा संन्यासिनी स्वयं दक्षिणेश्वर पधारीं। परमहंस रामकृष्ण को पुत्र की भाँति उनका स्नेह प्राप्त हुआ और उन्होंने परमहंस जी से अनेक तान्त्रिक साधनाएँ करायीं।
उनके अतिरिक्त तोतापुरी नामक एक वेदान्ती महात्मा का भी परमहंस जी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। उनसे परमहंस जी ने अद्वैत-ज्ञान का सूत्र प्राप्त करके उसे अपनी साधना से अपरोक्ष किया।
परमहंस जी का जीवन विभिन्न साधनाओं तथा सिद्धियों के चमत्कारों से पूर्ण है; किंतु चमत्कार महापुरुष की महत्ता नहीं बढ़ाते।
परमहंस जी की महत्ता उनके त्याग, वैराग्य, पराभक्ति और उस अमृतोपदेश में है, जिससे सहस्त्रों प्राणी कृतार्थ हुए, जिसके प्रभाव से ब्रह्मसमाज के अध्यक्ष केशवचन्द्र सेन जैसे विद्वान भी प्रभावित थे, जिस प्रभाव एवं आध्यात्मिक शक्ति ने नरेन्द्र -जैसे नास्तिक, तर्कशील युवक को परम आस्तिक, भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी विवेकानन्द बना दिया।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का अधिकांश जीवन प्राय: समाधि की स्थिति में ही व्यतीत हुआ।
जीवन के अन्तिम तीस वर्षों में उन्होंने काशी, वृन्दावन, प्रयाग आदि तीर्थों की यात्रा की।
उनकी उपदेश-शैली बड़ी सरल और भावग्राही थी। वे एक छोटे दृष्टान्त में पूरी बात कह जाते थे। स्नेह, दया और सेवा के द्वारा ही उन्होंने लोक सुधार की सदा शिक्षा दी।
15 अगस्त सन 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान किया।
सेवाग्राम के संत के शब्दों में 'उनका जीवन धर्म को व्यवहार क्षेत्र में उतारकर मूर्तस्वरूप देने के प्रयास की एक अमरगाथा है।'

Wednesday, March 7, 2012

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य


 समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय के नाम से गद्दी पर बैठा। उसका शासन काल 375 ई॰ से 414 ई॰ तक रहा। वह अपने वंश का सबसे  पराक्रमी शासक हुआ। मालवा, काठियावाड़, गुजरात और उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिलाकर उसने अपने पिता के राज्य का और भी विस्तार किया। शाकों पर विजय प्राप्त करके उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। उसकी एक उपाधि शकारी भी थी .
 चीनी यात्री फ़ाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा। वह बड़ा उदार और न्याय-परायण सम्राट था। उसके समय में भारतीय संस्कृति का चतुर्दिक विकास हुआ। महाकवि कालिदास उसके दरबार की शोभा थे। वह स्वयं वैष्णव था, पर अन्य धर्मों के प्रति भी उदार-भावना रखता था। गुप्त राजाओं के काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा जाता है। इसका बहुत कुछ श्रेय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की शासन-व्यवस्था को है।

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (375 ई - लगभग 414 ई.) समुद्रगुप्त के एरण अभिलेख से स्पष्ट है कि उनके बहुत से पुत्र पौत्र थे, किंतु अपने अंतिम समय में उन्होंने चंद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। चंद्रगुप्त द्वितीय एवं परवर्ती गुप्तसम्राटों के अभिलेखों से भी यही ध्वनित होता है कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरांत चंद्रगुप्त द्वितीय ही गुप्तसम्राट् हुए। किंतु इसके विपरीत, अंशरूप में उपलब्ध 'देवीचंद्रगुप्तम्‌' एवं कतिपय अन्य साहित्यिक तथा पुरातात्विक अभिलेख संबंधी प्रमाणों के आधार पर कुछ विद्वान्‌ रामगुप्त को समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी प्रमाणित करते हैं। रामगुप्त की अयोग्यता का लाभ उठाकर चंद्रगुप्त ने उसके राज्य एवं रानी दोनों का हरण कर लिया। रामगुप्त की एतिहासिकता संदिग्ध है। भिलसा आदि से प्राप्त ताम्र सिक्कों का रामगुप्त उस प्रदेश का कोई स्थानीय शासक ही रहा होगा।
चंद्रगुप्त द्वितीय की तिथि का निर्धारण उनके अभिलेखों आदि के आधार पर किया जाता है। चंद्रगुप्त का, गुप्तसंवत्‌ 61 (380 ई.) में उत्कीर्ण मथुरा स्तंभलेख, उनके राज्य के पाँचवें वर्ष में लिखाया गया था। फलत: उनका राज्यारोहण गुप्तसंवत्‌ 61-5= 56= 375 ई. में हुआ। चंद्रगुप्त द्वितीय की अंतिम ज्ञात तिथि उनकी रजतमुद्राओं पर प्राप्त हाती है- गुप्तसंवत्‌ 90+ 0= 409- 410 ई.। इससे अनुमान कर सकते हैं कि चंद्रगुप्त संभवत: उपरिलिखित वर्ष तक शासन कर रहे थे। इसके विपरीत कुमारगुप्त प्रथम की प्रथम ज्ञात तिथि गुप्तसंवत्‌ 96= 415 ई., उनके बिलसँड़ अभिलेख से प्राप्त होती है। इस आधर पर, ऐसा अनुमान किया जाता है कि, चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल का समापन 413-14 ई. में हुआ होगा।
चंद्रगुप्त द्वितीय के विभिन्न लेखों से ज्ञात देवगुप्त एवं देवराज-अन्य नाम प्रतीत होते हैं। अभिलेखों एवं मुद्रालेखों से उनकी विभिन्न उपाधियों- महाराजाधिराज, परमभागवत, सिंहविक्रम, नरेंद्रचंद्र, नरेंद्रसिंह, विक्रमांक एव विक्रमादित्य आदि- का ज्ञान होता है।
उनका सर्वप्रथम सैनिक अभियान सौराष्ट्र के शक क्षत्रपों के विरुद्ध हुआ। संघर्ष प्रक्रिया एवं अन्य संबद्ध विषयों का विस्तृत ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। चंद्रगुप्त के सांधिविग्रहिक वीरसेन शाब के उदयगिरि (भिलसा के समीप) गुहालेख से, उनका समस्त पृथ्वी जतीने के उद्देश्य से वहाँ तक आना स्पष्ट है। इसी स्थान से प्राप्त चंद्रगुप्त के सामंत शासक सनकानीक महाराज के गुप्तसंवत्‌ 82 (= 401-2 ई.) के लेख तथा आम्रकार्दव नाम के सैन्याधिकारी के साँची गुप्तसंवत्‌ 93 (= 412-13 ई.) के शिलालेख से मालव प्रदेश में उनकी दीर्घ-उपस्थिति प्रत्यक्ष होती है। संभवत: चंद्रगुप्त द्वितीय ने शक रुद्रसिंह तृतीय के विरुद्ध युद्धसंचालन तथा विजयोपरांत सौराष्ट्र के शासन को यहीं से व्यवस्थित किया हो। चंद्रगुप्त की शकविजय का अनुमान उनकी रजतमुद्राओं से भी होता है। सौराष्ट्र की शकमुद्रा परंपरा के अनुकरण में प्रचलित इन मुद्राओं से भी होता है। सौराष्ट्र की शकमुद्रा परंपरा के अनुकरण में प्रचलित इन मुद्राओं पर चंद्रगुप्त द्वितीय का चित्र, नाम, विरुद एवं मुद्राप्रचलन की तिथि लिखित है। शक मुद्राओं से ज्ञात अंतिम तिथि 388 ई. प्रतीत होती है। इसके विपरीत इन सिक्कों से ज्ञात चंद्रगुप्त की प्रथम तिथि गुप्तसंवत्‌ 90+ 0 है। फलत: अनुमान किया जा सकता है कि चंद्रगुप्त की सैराष्ट्रविजय प्राय: 20 वर्षों के सुदीर्घ युद्ध के पश्चात्‌ 409 ई. के बाद ही कभी पूर्णरूपेण सफल हुई होगी। सम्राट् चंद्रगुप्त की शकविजय उन्हें साहित्यिक अनुश्रुतियों के शकारि विक्रमादित्य एव रामगुप्त की कथाओं से संबद्ध कर सकती है।
चंद्रगुप्त के सेनाध्यक्ष आम्रकार्दव, अपने सांची अभिलेख में स्वयं को, अनेक समरावाप्तविजययशसूपताक: कहते हैं। इन अनेक समरों के उल्लेख से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि चंद्रगुप्त ने शकयुद्ध के अतिरिक्त अन्य युद्ध भी किए होंगे। किंतु वर्तमान स्थिति में उनका विवेचन अप्रमाणित है। दिल्ली में कुतुबमीनार के पार्श्व में स्थित लौहस्तंभ पर किन्हीं (सम्राट्) चंद्र की विजयप्रशस्ति उत्कीर्ण है। चंद्र की पहचान प्राचीन भारत के विभिन्न सम्राटों से की जाती रही है (देखिए चंद्र)। किंतु प्राय: विद्वान्‌ उनकी पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से करते हैं। यदि इस सिद्धांत को सही माना जाय तो कहना न होगा कि द्वितीय चंद्रगुप्त ने वंग प्रदेश में संगठित रूप से आए हुए शत्रुओं को पराजित किया एवं (युद्ध द्वारा) सिंधु के सात मुखों को पार कर वाह्लीकों को जीता। वंग को पहचान साधारणतया पूर्वी बंगाल (प्राचीन सम्राट) तथा बाह्लीक की बल्ख (वैक्ट्रिया) से की जाती हैं, यद्यपि कुछ आश्चर्य नहीं जो वाह्लीकों की निवास पश्चिमी पाकिस्तान में ही कहीं रहा हो। सम्राट् चंद्रगुप्त द्वितीय के साथ चंद्र के अभिज्ञान को मानने में कठिनाइयाँ भी हैं। चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपना राज्य पिता द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, किंतु लौहस्तंभ के चंद्र ने अपने स्वभजार्जित विस्तृत साम्राज्य का उल्लेख किया है।
साहित्य में बहुचर्चित सम्राट् विक्रमादित्य की पहचान भी संदिग्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि विक्रमादित्य संबंधी कथाशृंखंला की पृष्ठभूमि में अनेक शक्तिशाली सम्राटों की यशोगाथाएँ हैं। किंतु विभिन्न दृष्टियों से देखने पर, विशेषत: अपनी शकविजय के संदर्भ में, चंद्रगुप्त द्वितीय ही विक्रमादित्य कथापरंपरा के वास्तविक नायक प्रतीत होते हैं। चंद्रगुप्त को विक्रमादित्य उपाधि उनकी स्वर्णमुद्राओं पर प्राप्त होती है।
[संपादित करें]साम्राज्य

चंद्रगुप्त का साम्राज्य सुविस्तृत था। इसमें पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर में संभवत: बल्ख तथा उत्तर-पश्चिम में अरब सागर तक के समस्त प्रदेश सम्मिलित थे। इस विस्तृत साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करने की दृष्टि से चंद्रगुप्त ने अनेक शक्तिशाली एवं ऐश्वर्योन्मुखी राजपरिवारों से विवाहसंबंध स्थापित किए। स्वयं उनकी द्वितीय रानी कुबेरनागा 'नागकुलसंभूता' थी। कुबेरनागा से उत्पन्न प्रभावतीगुप्त वाकाटकनरेश रुद्रसेन द्वितीय को ब्याहीं थी। नागों एवं वाकाटकों की भौगोलिक स्थिति से सिद्ध है कि उनसे गुप्तसाम्राज्य को पर्याप्त बल एवं सहायता मिली होगी। कुंतल प्रदेश के कदंब नरेश शांतिवर्मन के तालगुंड अभिलेख से विदित है कि राजा काकुस्थ (त्स्थ) वर्मन की पुत्रियाँ गुप्त एवं अन्य राजाओं को ब्याहीं थीं। कुमारी का विवाह चंद्रगुप्त द्वितीय या उनके किसी पुत्र से हुआ होगा।
साम्राज्य को शासन की सुविधा के लिये विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया गया था। सम्राट् स्वयं राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। उसकी सहायता के लिये मंत्रिपरिषद् होती थी। राजा के बाद दूसरा उच्च अधिकारी युवराज होता था। मंत्री मंत्रिपरिषद् का मुख्य अधिकारी एवं अध्यक्ष था। चंद्रगुप्त द्वितीय के मंत्री शिखरस्वामी थे। इन्हें करमदांड अभिलेख में कुमारामात्य भी कहा है। इस संबंध में यह ज्ञातव्य है कि गुप्तकाल में युवराजों के साहाय्य के लिये स्वतंत्र परिषद् हुआ करती थी। वीरसेन शाब को 'अन्वयप्राप्तसचिव' कहा है। ये चंद्रगुप्त के सांधिविग्रहिक थे। किंतु सेनाध्यक्ष संभवत: आम्रकार्दव थे। चंद्रगुप्त के समय के शासकीय विभागों के अध्यक्षों में (1) कुमारामात्याधिकरण (2) बलाधिकरण (3) रणभांडाधिकरण (4) दंडपाशाधिकरण (5) विनयशूर (6) महाप्रतीहार (7) तलवर (?) (8) महादंडनायक (9) विनयस्थितिस्थापक (10) भटाश्वपति और (11) उपरिक आदि मुख्य हैं।
शासन की सबसे बड़ी इकाई प्रांत था। प्रांतों के मुख्य अधिकारी उपरिक कहे जाते थे। तीरभुक्ति-उपरिक-अधिकरण के राज्यपाल महाराज गोविंदगुप्त थे। उनकी राजधानी वैशाली थी। शासन की प्रांतीय इकाई देश या भुक्ति कहलाती थी। प्रांतों का विभाजन अनेक प्रदेशों या विषयों में हुआ था। वैशाली के सर्वोच्च शासकीय अधिकारी का विभाग वैशाली-अधिष्ठान-अधिकरण कहलाता था। नगरां एवं ग्रामों के शासन के लिय अलग परिषद् होती थी। ग्रामशासन के लिये ग्रामिक, महत्तर एवं भोजक उत्तरदायी होते थे।
चंद्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र थी। किंतु परवर्ती कुंतलनरेशों के अभिलेखों में उसे पाटलिपुरवराधीश्वर एवं उज्जयिनीपुरवराधीश्वर दोनों कहा है। बहुत संभव है, कि शक रुद्रसिंह की पराजय के बाद चंद्रगुप्त ने हपने राज्य की दूसरी राजधानी उज्जयिनी बनाई हो। साहित्यग्रंथों में विक्रमादित्य को भी इन दोनों ही नगरों से संबद्ध किया गया है। उज्जयिनी विजय के बाद ही कभी मालव संवत्‌ विक्रमादित्य के नाम से संबद्ध होकर विक्रम-संवत्‌ नाम से अभिहित होने लगा होगा। यों यह संवत्‌ 58 ई.पू. से ही आरंभ हो गया प्रतीत होता है
चंद्रगुप्त के राज्यकाल में चीनी यात्री फाह्यान ने भारत का भ्रमण किया। फाह्यान (400-411 ई.) ने तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति तथा व्यवस्था का अत्यंत सजीव उल्लेख किया है। मध्यदेश का वर्णन करते हुए फाह्यान ने लिखा है कि लोग राजा की भूमि जोतते हैं और लगान के रूप में उपज का कुछ अंश राजा को देते हैं। और जब चाहते हैं तब उसकी भूमि को छोड़ देते हैं और जहाँ मन में आता है जाकर रहते हैं। राजा न प्राणदंड देता है और न शारीरिक दंड। अपराध की गुरुता या लघुता की दृष्टि में रखते हुए अर्थदंड दिया जाता है। बार बार राजद्रोह करनेवाले अपराधों का दाहिना हाथ काट लिया जाता है। राज्याधिकारियों को नियत वेतन मिलता है। नीच चांडालों के अतिरिक्त न तो कोई जीवहिंसा करता है, न मदिरापान करता और न लहसुन प्यास खाता है। पाटलिपुत्र में फाह्यान ने अशोक के समय के भव्य प्रासाद देखे। वे अत्यंत सुंदर थे और ऐसा लगता था जैसे मानवनिर्मित न हों। पाटलिपुत्र मध्यदेश का सबसे बड़ा नगर था। लोग धनी और उदार थे। अच्छे धार्मिक कार्य करने में एक दूसरे से स्पर्धा करते थे। देश में चोर डाकुओं का कोई भय नहीं था।
चंद्रगुप्त के काल की आर्थिक संपन्नता उसकी प्रचुर स्वर्णमुद्राओं से पुष्ट होती है। इसके अतिरिक्त उसने रजत एवं ताम्र मुद्राओं का प्रचलन भी किया। रजत एवं ताम्र मुद्राओं का प्रचलन संभवत: स्थानीय था, किंतु उसकी स्वर्णमुद्राएँ सार्वभौम प्रचनल के लिये थीं।

Tuesday, March 6, 2012

जीवन क्या है?

आप फूल क्यों तोडते हैं? पौधों को क्यों विदीर्ण करते हैं? क्यों आप फर्नीचर नष्ट करते हैं या कोई कागज इधर-उधर फेंक देते हैं? मुझे मालूम है आपको ऐसा न करने के लिए कई बार कहा गया होगा। लेकिन आप यह सब करते हैं। गलतियों को दोहराते हैं। लेकिन ऐसा करते समय आप अविचारशीलताकी अवस्था में होते हैं? ये कार्यकलाप आप इसलिए करते हैं, क्योंकि आप उस वक्त विचारशीलऔर जाग्रत नहीं हैं। आप ऐसा करते हैं, क्योंकि आप असावधान हैं। आप सोचते ही नहीं हैं। आपका मन तंद्रा में रहता है। आप पूर्णत:सजग नहीं हैं। वहां होकर भी स्वयं उस स्थान पर उपस्थित नहीं हैं। ऐसी अवस्था में आपको मना करने का कोई भी मतलब नहीं होगा। आप उसे ग्रहण कर ही नहीं पाएंगे। लेकिन यदि मना करने वाले आपको विचारशीलहोने में, सही अर्र्थोमें सजग होने में, वृक्षों, पक्षियों, सरिता और वसुधा के अद्भुत ऐश्वर्य का आनंद लेने में आपकी सहायता कर सकें, तब आपके लिए एक छोटा-सा इशारा भी काफी होगा। तब आपके भीतर संवेदनशीलता विकसित हो चुकी होगी। तब आप प्रत्येक वस्तु के प्रति संवेदनशील और सचेत होंगे।
लेकिन यह दुर्भाग्य का विषय है कि यह करें, यह नहीं करें कहकर आपकी संवेदनशीलता ही नष्ट कर दी जाती है। आपके माता-पिता, शिक्षक, समाज, धर्म, पादरी,आपकी खुद की महत्वाकाक्षाएं,आपका लालच व ईष्र्याएं, ये सभी आपको कहते रहते हैं - आप यह करें, यह न करें। आप इन करने और न करने से मुक्त हों। साथ ही संवेदनशील भी हों, ताकि आप सहज दयालु बन सकें। किसी को चोट न पहुंचाएं। इधर-उधर कागज न फेंके। राह का पत्थर बिना हटाए आगे न बढें। इन सारी बातों के लिए अंकुश की आवश्यकता नहीं, विचारशीलताकी जरूरत होती है।

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जब दास प्रथा का चलन था। तब इंसान को खुलेआम खरीदा - बेचा जाता था। उनके बड़े - बड़े बाजार लगते थे। उनके साथ जानवरों जैसा सलूक किया जाता था। किसी देश में एक जागीरदार के पास अनेक दास थे जिनसे वह बड़ा ही क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता था। न ही उन्हें पेट भर खाना देता था , न ही आराम करने देता था। ऊपर से जब - तब कोड़ों से मारता भी था। जागीरदार ने दासों की देखभाल के लिए एक व्यक्ति को रख लिया।

वह व्यक्ति स्वभाव से बड़ा ही नरम , दयालु और मेहनती था। वह गुलामों से स्नेहपूर्ण व्यवहार करता था। वह उन्हें समय पर खाना देता और आराम करने के पर्याप्त मौके भी उपलब्ध कराता था। एक दिन जागीरदार ने उस व्यक्ति से कहा - जाओ , खेतों में गेहूं बो कर आओ। जब वह खेतों में बुवाई करके लौटा तो जागीरदार ने उससे पूछा - क्या ठीक से गेहूं बो कर आ गए ? इस पर उस व्यक्ति ने कहा - जी हां। बहुत अच्छे ढंग से बोया है। जौ की बड़ी अच्छी फसल आएगी। इस पर जागीरदार हैरत में पड़ गया।

उसने उससे गुस्से में कहा - क्या बक रहे हो ? मुझे नहीं पता था कि तू इतना बड़ा बेवकूफ निकलेगा। मैंने तुम्हें गेहूं बोने के लिए भेजा था। अगर तुमने गेहूं बोए हैं तो जौ की फसल भला क्यों आएगी ? इस पर उस व्यक्ति ने कहा - ठीक कह रहे हैं आप। जब मैंने गेहूं बोये हैं तो जौ की फसल क्यों आएगी ? आदमी जो बोता है , वही काटता है। जैसे आप इन गुलामों के साथ बेहद क्रूरतापूर्ण व्यवहार कर रहे हैं फिर भी आप चाहते हैं कि आपके जीवन में खुशी और समृद्धि आए। ऐसा कैसे हो सकता है भला। दूसरों को दुख - तकलीफ पहुंचाकर कोई भी कभी संतुष्ट नहीं रह सकता। जागीरदार को यह बात समझ में आ गई। वह उस दिन से गुलामों के साथ अच्छा व्यवहार करने लगा।

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भगवान कृष्ण को देवकी ने जन्म दिया था, लेकिन उन्हें पाल-पोस कर बडा किया यशोदा मां ने। माना जाता है कि जन्म देने वाले से पालने वाला बडा होता है।
यशोदा ने श्रीकृष्ण को जन्म नहीं दिया था। पालन-पोषण किया था। उन्हें संस्कार देने का पूरा प्रयत्न किया था। मां से भी बढकर। यह उनका क‌र्त्तव्य था। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि जन्म देने से ज्यादा महत्व पालने वाले का होता है। जन्म देने वाली मां जननी हो सकती है, लेकिन चुनौतियों से जूझने की शक्ति वही मातृ-शक्ति दे सकती है, जो बच्चे में संस्कार भरे।
यशोदा जी को नहीं मालूम था कि श्रीकृष्ण भगवान विष्णु का अवतार हैं, इसलिए उन्होंने बालक कृष्ण के साथ वैसा ही व्यवहार किया, जैसे एक ममतामयीमां करती है। उन्हें प्यार से दुलराया,पालने में झुलाया, ठुमक-ठुमक कर चलते हुए देखकर खुश हुई, तो उद्दंडता करने पर उनसे स्पष्टीकरण मांगा और दोषी मानकर उन्हें दंड भी दिया। कृष्ण के घर आने से उनके यहां उत्सव जैसा माहौल हो गया था। यदि उन्हें श्रीकृष्ण के ईश्वर होने का पता भी होता, तब भी वे श्रीकृष्ण को अपना कान्हाही समझतीं। क्योंकि यशोदा श्रीकृष्ण को पाकर वात्सल्य का झरना बन चुकी थीं। उन्होंने सिर्फ श्रीकृष्ण का ही लालन-पालन नहीं किया, बल्कि रोहिणी के पुत्र बलराम को भी मां की ममता और परवरिश दी।
धार्मिक ग्रंथों और भक्तिकालीनकवियों द्वारा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का इतना सजीव चित्रण बिना यशोदा के वात्सल्य भाव के संभव नहीं था। माता यशोदा के यहां रहकर ही श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में कंस के भेजे हुए राक्षसों का वध कर दिया। यशोदा को हमेशा लगता रहा कि यह बालक विशिष्ट तो है, लेकिन उनका हृदय उन्हें अबोध बालक के रूप में ही स्वीकार करता रहा। यह मां का हृदय था, जो अपनी संतान को हर विपत्ति से बचाने को तत्पर रहता है। पूतना,शकटासुर,धेनुकजैसे असुरों के वध के बावजूद यशोदा श्रीकृष्ण को अबोध बालक ही अनुभव करती रहीं।
उन्होंने श्रीकृष्ण के कार्यकलापों पर पूरा ध्यान रखा। उन्हें गोप और बलराम से पता चला कि बालक कृष्ण ने मिट्टी खाई है, तो वे चिंतामग्न हो गईं। तुरंत कृष्ण से कहा- मुंह खोलो। यह बात दूसरी है कि कृष्ण के मुंह में यशोदा को मिट्टी की जगह पूरा ब्रह्मांड दिखा। इसी तरह गोपिकाओं की माखन चुरा कर खाने की शिकायत मिलने पर भी मां यशोदा ने कृष्ण से सवाल-जवाब किए। दोषी पाए जाने पर दंड दिया। उन्हें ओखली से बांध दिया। लेकिन कृष्ण के तर्र्कोके आगे आखिरकार यशोदा हर बार वात्सल्य की नदी बन जातीं। कृष्ण के मथुरा जाने के बाद वे देवकी को संदेश भिजवाती हैं कि कृष्ण को तो सुबह माखन-रोटी खाने की आदत है। प्रसंग आता है कि बचपन में बलराम कृष्ण को चिढाते हैं कि तू यशोदा का पुत्र नहीं है। उन्होंने तुम्हें मोल लिया है। इससे कृष्ण यशोदा से प्रश्न करते हैं कि मेरी मां कौन है? इस पर मां यशोदा अपना पूरा प्यार कृष्ण पर लुटा देती हैं और कहती हैं -मै ही तेरी मां हूं और तू मेरा ही पुत्र है। यशोदा ने भले ही सच न बोला हो, लेकिन झूठ भी नहीं बोला था। क्योंकि मां वही होती है, जो प्यार देने के साथ-साथ बच्चे को गलत मार्ग की ओर जाने पर दंडित भी करे। यशोदा जी हैं पालनहार।

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जीवन क्या है? खेल, आनंद, पहेली या बस.. सांसों की डोर थामे उम्र के सफर पर बढ़ते जाना? ये साधना है या यातना? सुख है या उलझाव? जीवन का अर्थ कोई भी, पूरी तरह, कभी समझ नहीं पाया है, लेकिन इसकी अनगिनत परिभाषाएं सामने आती रही हैं। हम अलग अलग समय में ज़िंदगी के मूल्यों को परखते रहते हैं, उनका अर्थ तलाशने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। हालांकि एक बात आपने कभी गौर की है कि ज़िंदगी को परखने की कोशिश में हम एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते हैं। वह ये है कि जीवन की विशिष्ट परिभाषाएं दरअसल, हमारे सामान्य होने में छुपी हैं। इनमें से ही एक अहम बात है प्रकृति से हमारा जुड़ाव। कुदरत का मतलब मिट्टी, पानी, पहाड़, झरने तो हैं ही, पांचों तत्व भी तो प्रकृति से ही मिले हैं। हमारी देह में, हमारे दुनियावी वजूद में शामिल पंच तत्व। और फिर, दुनिया में अगर हम मौजूद हैं तो प्रकृति की नियामतों के बिना कैसे जिएंगे? क्या सांस न लेंगे? तरहतरह के फूलों की खुशबुओं से मुलाकात न करेंगे? भोजन और पानी के बगैर कैसे गुजरेगी जीवन की रेलगाड़ी? तो आइए, आज प्रकृति के संग-संग ही तलाशते हैं अपनी ज़िंदगी का अर्थ! कुदरत महज हमारे जन्म और जीने के लिए ही जरूरी नहीं है। यह कल्पना भी सिहरा देने वाली होगी कि हमारे आसपास प्राणतत्व की उपस्थिति न होगी। सोचकर देखिएगा कि आप किसी ऐसी जगह मौजूद हों, जहां सबकुछ अदृश्य हो। आपके पैरों तले मिट्टी न हो, आंख के सामने न हों, पीने के लिए पानी और बातें करने के लिए परिंदे न हों.. क्या वहां जीवन संभव हो सकेगा? खैर, अस्तित्व से आगे निकलकर इससे भी विराट संदर्भो में अर्थ तलाशें तो हम पाएंगे कि जन्म से लेकर जीवन और फिर नश्वर संसार से अलविदा कहने तक प्रकृति हमारे साथ अलग-अलग रूपों में अपनी पूर्ण सकारात्मकता समेत मौजूद है।


पहाड़ की छाती चीरकर झरने पानी लेकर हाजिर हैं। उनकी सौगात आगे बढ़ाती हैं नदियां और फिर सागर में मिल जाती हैं। समंदरों से यही पानी सूरज तक पहुंचता है और होती है बारिश। बारिश न हो तो खेत कैसे लहलहाएंगे? हां, खुशबुएं न हों, रास्ते न हों, जंगलों का नामओनिशां न हो तो हमारे होने का, इस जीवन का ही क्या मतलब होगा?

प्रकृति की हर धड़कन में कुदरत के रचयिता के श्रंगारिक मन की खूबसूरत अभिव्यक्ति होती है। कितने किस्म के तो हैं उत्सव। मौसमों की रंगत भी कुछ कम अनूठी नहीं। जाड़े में ठिठुरन, बारिश में भीगना, गर्मी में छांव और बारिश की उमंग तो अनिर्वचनीय ही है। सब के सब मौसम कुछ न कुछ बयां करते हैं। सच कहें तो प्रकृति में एक अनूठे ज्ञान की पाठशाला समाई हुई है। जरूरत बस इस बात की है कि हम कुदरत की स्वाभाविक उड़ान को, उसके योगदान को समझें, सराहें और पहचानें। स्वाभाविक तौर पर हर दिन बिना कोई विलंब किए उगने वाले सूरज को, बगैर थके उसकी परिक्रमा करने वाली पृथ्वी को और उसके पारस्परिक संबंध के कारण होने वाले बदलावों को समझ पाएंगे। हम जान पाएंगे कि बिना कुछ लिए महज फल और छाया देते हैं। नदियां कुछ भी नहीं कहतीं, पर पानी की सौगात देती हैं। मौसम अपने रंग बिना किसी कीमत के बिखेरते हैं।



हम जब तक प्रकृति की ओर से मिल रही सीख समझते हैं और उसे आहत नहीं करते, उसकी तरफ से आनंद की वर्षा होती है। हम उसमें भीगते रहते हैं, लेकिन जब जब हम कारसाज कुदरत को ह्रश्वयार करना बंद कर देते हैं, कई तरह की सुनामियों का सामना भी करना पड़ता है। अच्छा हो, अगर हम प्रकृति का सम्मान करना सीख लें और उसके जरिए मानव-मात्र की होने वाली सेवा से जरूरी संदेश ग्रहण कर लें। ऐसा हो सका तो यकीनन, हमारी आंखों में आशा, संतोष, उम्मीद और खुशी के कई दीये जल उठेंगे।

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जब फ्रांस में विद्रोही काफी उत्पात मचा रहे थे। सरकार अपने तरीकों से विद्रोहियों से निपटने में जुटी हुई थी। काफी हद तक सेना ने विद्रोह को कुचल दिया था , फिर भी कुछ शहरों में स्थिति खराब थी। इन्हीं में से एक शहर था लिथोस। लिथोस में विद्रोह पूर्णतया दबाया नहीं जा सका था , लिहाजा जनरल कास्तलेन जैसे कड़े अफसर को वहां नियंत्रण के लिए भेजा गया। कास्तलेन विद्रोहियों के साथ काफी सख्ती से पेश आते थे।

इसलिए विद्रोहियों के बीच उनका खौफ भी था और वे उनसे चिढ़ते भी थे। इन्हीं विद्रोहियों में एक नाई भी था , जो प्राय : कहता फिरता - जनरल मेरे सामने आ जाए तो मैं उस्तरे से उसका सफाया कर दूं। जब कास्तलेन ने यह बात सुनी तो वह अकेले ही एक दिन उसकी दुकान पर पहुंच गया और उसे अपनी हजामत बनाने के लिए कहा। वह नाई जनरल को पहचानता था। उसे अपनी दुकान पर देखकर वह बुरी तरह घबरा गया और कांपते हाथों से उस्तरा उठाकर जैसे - तैसे उसकी हजामत बनाई।

काम हो जाने के बाद जनरल कास्तलेन ने उसे पैसे दिए और कहा - मैंने तुम्हें अपना गला काटने का पूरा मौका दिया। तुम्हारे हाथ में उस्तरा था , मगर तुम उसका फायदा नहीं उठा सके। इस पर नाई ने कहा - ऐसा करके मैं अपने पेशे के साथ धोखा नहीं कर सकता था। मेरा उस्तरा किसी की हजामत बनाने के लिए है किसी की जान लेने के लिए नहीं। वैसे मैं आपसे निपट लूंगा जब आप हथियारबंद होंगे। लेकिन अभी आप मेरे ग्राहक हैं। कास्तलेन मुंह लटकाकर चला गया।

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वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना का निधन भारतीय मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. हरगोविंद खुराना का मेसाचुसेट्स के कोनकोर्ड में 9 नवम्बर , 2011 को निधन हो गया। वह 89 वर्ष के थे। डॉ. हरगोविंद खुराना को चिकित्सा (शरीर क्रिया विज्ञान) क्षेत्र में वर्ष 1968 का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। आरएनए के न्यूक्लियोटाइड सीक्वेंस को सुलझाने और जेनेटिक कोड को समझने के लिए उन्हें यह सम्मान दिया गया। डॉ. हरगोविंद खुराना का जन्म पाकिस्तान के पंजाब में छोटे से गांव रायपुर में 9 जनवरी, 1922 को हुआ।

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एक मजदूर बिल्कुल अकेला था। कभी आवश्यकता होती तो मजदूरी कर लेता तो कभी यूं ही रह जाता। एक बार उसके पास खाने को कुछ नहीं था। वह घर से मजदूरी ढूंढने के लिए निकल पड़ा। गर्मी का मौसम था और धूप बहुत तेज थी। उसे एक व्यक्ति दिखा जिसने एक भारी संदूक उठा रखा था। उसने उस व्यक्ति से पूछा- क्या आपको मजदूर चाहिए? उस व्यक्ति को मजदूर की आवश्यकता भी थी, इसलिए उसने संदूक मजदूर को उठाने के लिए दे दिया। संदूक को कंधे पर रखकर मजदूर चलने लगा। गरीबी के कारण उसके पैरों में जूते नहीं थे। सड़क की जलन से बचने के लिए कभी-कभी वह किसी पेड़ की छाया में थोड़ी देर खड़ा हो जाता था। पैर जलने से वह मन-ही-मन झुंझला उठा और उस व्यक्ति से बोला- ईश्वर भी कैसा अन्यायी है। हम गरीबों को जूते पहनने लायक पैसे भी नहीं दिए। मजदूर की बात सुनकर व्यक्ति खामोश रहा।

दोनों थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि तभी उन्हें एक ऐसा व्यक्ति दिखा जिसके पैर नहीं थे और वह जमीन पर घिसटते हुए चल रहा था। यह देखकर वह व्यक्ति मजदूर से बोला- तुम्हारे पास तो जूते नहीं है, परंतु इसके तो पैर ही नहीं है। जितना कष्ट तुम्हें हो रहा है, उससे कहीं अधिक कष्ट इस समय इस व्यक्ति को हो रहा होगा। तुमसे भी छोटे और दुखी लोग संसार में हैं। तुम्हें जूते चाहिए तो अधिक मेहनत करो। हिम्मत हार कर ईश्वर को दोष देने की जरूरत नहीं। ईश्वर ने नकद पैसे तो आज तक किसी को भी नहीं दिए, परंतु मौके सभी को बराबर दिए हैं। उस व्यक्ति की बातों का मजदूर पर गहरा असर हुआ। वह उस दिन से अपनी कमियों को दूर कर अपनी योग्यता व मेहनत के बल पर बेहतर जीवन जीने का प्रयास करने लगा।

Monday, March 5, 2012

बालक अपने माता-पिता की विरासत को साथ लेकर चलता है.............

देश के जाने माने वैज्ञानिक सीवी रमन ने 28 फरवरी 1928 को अपनी विश्व विख्यात खोज रमन प्रभाव की घोषणा की थी। उनकी इसी उपलब्धि के उपलक्ष्य में भारत सरकार ने पहली बार 28 फरवरी 1987 को विज्ञान दिवस के रूप में मनाया। तभी से हर साल राष्ट्रीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी परिषद के तत्वाधान में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस का आयोजन किया जा रहा है। खोज के लिए उन्हें 1930 में भौतिकी का नोबेल प्राइज मिला। उनकी महान उपलब्धियों और अद्वितीय प्रतिभा को देखते हुए उन्हें 1954 मे भारत रत्न दिया गया।
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बच्चों को बिना दोषी महसूस कराए माता-पिता को उनकी गलती बताने की कला सीखनी चाहिए। बच्चों के मन से तिरस्कार के भय को हटाकर उन्हें अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत दिलाने की जरूरत है।
एक कहावत है कि बालक अपने माता-पिता की विरासत को साथ लेकर चलता है। सिर्फ आर्थिक विरासत को ही नहीं, बल्कि उनके चरित्र और आचरण को भी।
बालक अपने सीखने की शुरुआत माता-पिता की नकल करके करता है। सामान्य रूप से बच्चों की नजर बडी तेज होती है। वे हर क्षण सब कुछ ध्यान से देख रहे होते हैं। मां-बाप जब गुस्सा होते हैं, झूठ बोलते हैं या किसी का मजाक बना रहे होते हैं, उस समय बच्चे उसे आत्मसात कर लेते हैं। माता-पिता इस सच्चाई से बेखबर होते हैं कि बच्चे हर पल उन्हें परख रहे हैं। इसलिए माता-पिता का सहज रहना बहुत जरूरी है, क्योंकि माता-पिता का तनाव या आनंद, उनका चरित्र और मानसिकता बालक में स्थानांतरित हो रही होती है। अगर माता-पिता हिंसक हैं, तो बालक भी आमतौर पर हिंसक बनेगा। अगर वे भक्तिमयहैं या ऐसा होने का ढोंग भी करते हैं, तो भी बालक में भक्ति का बीज अंकुरित होगा।
माता-पिता के लिए सबसे बडी चुनौती है कि बच्चे हीनभावना या अहंकार से ग्रसित न हो जाएं। कई परिवारों में माता-पिता बच्चों को गलत बात के लिए कभी डांटते नहीं। इससे बच्चे कमजोर बन जाते हैं। दूसरी तरफ, कई लोग बच्चे को टोकते रहते हैं। इससे बच्चे या तो बहुत भयभीत रहते हैं या विद्रोही बन जाते हैं।
सबसे अच्छा तरीका यह है कि बच्चे को बिना दोषी महसूस कराए हुए माता-पिता उनकी गलती बताने की कला सीख जाएं। बच्चों के मन से तिरस्कार के भय को हटाकर उन्हें अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत दिलाने की जरूरत है। संस्कृत में कहावत है कि जब आपकी संतान 16साल की हो जाए, तो उनके साथ मित्रवत व्यवहार करें। उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं, यह मत कहिए। उनसे बस उनकी मुश्किलों के बारे में सुनिए। तब वे आपसे खुलकर बात करेंगे।
आज लोगों में जाति, धर्म, व्यवसाय और कई सारी चीजों के प्रति पूर्वाग्रह है। यह आवश्यक है कि बच्चों को इतना खुलापनमिले, ताकि वे अपनी दृष्टि विशाल रख सकें और जडें मजबूत। जिन बच्चों को नैतिक और धार्मिक मूल्य नहीं सिखाए जाते, वे बडे होकर जड से उखडे हुए वृक्ष जैसे हो जाते हैं। इसीलिए माता-पिता को सुनिश्चित करना है कि जब तक बालक की शाखाएं फैलने लगें, तब तक उनकी जडें मजबूत हो जाएं। बालक को बुद्धिमान और निष्पक्ष बनाने के लिए उसकी सांस्कृतिक और अध्यात्मिक नींव मजबूत होना जरूरी है।
यह अत्यंत जरूरी है कि बच्चे बहु-सांस्कृतिक, बहु-धार्मिक शिक्षा प्राप्त करें। दुनिया में कट्टरपन और धार्मिक आतंकवाद को रोकने के लिए यह आवश्यक है। अगर बालक अन्य सभी धमरें, संस्कृतियों और रीति-रिवाजों के बारे में थोडा-बहुत सीखता हुआ बडा हो, तो सबके साथ उसका भाईचारा बना रहेगा। अगर बच्चा हरेक धर्म के बारे में जान ले, तो उसे दूसरे धमरें के प्रति नफरत नहीं होगी। माता-पिता को अपने बच्चों को भविष्य में एक बेहतर इंसान बनाने का प्रयत्न अभी से करना चाहिए।

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हमारे समाज में आमतौर पर विवाह माता-पिता की मर्जी से होता है। अक्सर लोग बच्चों का विवाह तय करते समय उन्हीं कीए इच्छा-अनिच्छा का ध्यान नहीं रखते। विवाह सिर्फ दो लोगों को साथ रखने की एक रस्म नहीं है, यह भावी सृष्टि के निर्माण की एक दिव्य परंपरा है।

पुरुष प्रधान समाज में लड़कों को तो फिर भी अपनी पसंद-नापसंद रखने का अधिकार मिल जाता है लेकिन जो वंश को चलाने का आधार मानी जाती है, उन्हीं लड़कियों से अक्सर उनकी पसंद नहीं पूछी जाती। हमारे धर्म ने स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार दिए हैं। लड़कियों से उनकी इच्छा पूछी जाए। वे किस के साथ अपना जीवन बिताना चाहती हैं।

हमारे ग्रंथों में स्वयंवर की परंपरा रही है। जिसमें लड़की अपना वर खुद चुन सकती थी, उसके फैसले का सम्मान भी किया जाता था। हम जितने आधुनिक पहनावे और रहन-सहन में हुए हैं, उससे ज्यादा अपने विचारों और मानसिकता में पिछड़े भी हैं।

महाभारत में एक कन्या का विवाह देखिए। पुरातन काल में विचारों की आधुनिकता का इससे अच्छा उदाहरण नहीं मिल सकता। मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री जब विवाह के योग्य हुई, तो लोगों ने उन्हें अच्छे-अच्छे राजकुमारों के प्रस्ताव भेजने शुरू किए। अश्वपति ने सावित्री को बुलाकर उससे कहा कि उसे अब विवाह कर लेना चाहिए। विवाह के लिए मैं किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाऊंगा। तुम सेना की एक टुकड़ी ले जाकर पूरे भारत वर्ष का भ्रमण करो।

अपनी पसंद से कोई वर चुनों। तुम जिसे पसंद करोगी मैं पूरे सम्मान से उसके साथ तुम्हारा विवाह कर दूंगा। सावित्री ने एक वर्ष तक पूरे भारत वर्ष का भ्रमण किया। अंत में उसने सत्यवान नाम के एक राजकुमार को पसंद किया। सत्यवान के पिता भी राजा थे लेकिन उनके भाइयों ने धोखे से उनका राज्य छिन लिया। इस कारण वे वनवासी हो गए थे।

सत्यवान की उम्र मात्र एक वर्ष ही शेष थी, फिर भी अश्वपति ने अपनी बेटी की इच्छा का मान रखते हुए, उसका विवाह सत्यवान से कर दिया। इसी सावित्री ने अपने तप बल से सत्यवान के प्राण यमराज से वापस मांग लिए थे।

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प्रसिद्ध उद्योगपति जॉनसन एक बार किसी कस्बे से होकर गुजर रहे थे। उनकी तेज रफ्तार कार जब उस कस्बे से निकलकर खुले में आई तभी अचानक एक तेज आवाज के साथ एक बड़ा पत्थर उनकी कार से आ टकराया और कार में खरोंच का एक बड़ा निशान छोड़ गया। जॉनसन ने तत्काल ब्रेक लगाया और कार से उतरकर उधर देखने लगे जिधर से पत्थर आया था। वह गुस्से से थर-थर कांपने लगे थे। तभी उनकी नजर एक लड़के पर पड़ी जो वहीं सहमा सा खड़ा था। वह उसे थप्पड़ जड़ने ही वाले थे कि लड़का रुआंसा होकर बोला- पत्थर फेंकने के लिए माफी चाहता हूं। मगर यहां से गुजर रही सभी गाडि़यां इतनी तेज दौड़ रही हैं कि मेरे चिल्लाने की आवाज किसी के कानों में नहीं पड़ रही। पिछली गली के कोने में मेरा बड़ा भाई अपने वील-चेयर से गिरकर जमीन पर पड़ा है। मैं उसे खुद नहीं उठा पाऊंगा इसलिए मदद के लिए बड़ी देर से चिल्ला रहा हूं। जब किसी ने भी नहीं रोका तो मुझे मजबूरन आपकी गाड़ी पर पत्थर मारना पड़ा। आप ही बताइए मैं क्या करता। क्या मैं अपने भाई को उसके हाल पर छोड़ दूं?

लड़के की मासूमियत भरी बात सुनते ही जॉनसन का गुस्सा उतर गया। वह ग्लानि से भर उठे। वह उस लड़के के साथ उसके भाई के पास पहुंचे और उन्होंने उसे सहारा देकर व्हील चेयर पर बिठाया। दोनों भाइयों ने जॉनसन के प्रति आभार व्यक्त किया। जॉनसन इस घटना को भुला नहीं पाए। काफी दिनों बाद जब उन्होंने अपनी जीवनी लिखी तो उसमें एक खास वाक्य लिखा जो काफी मशहूर हुआ। वह वाक्य था-जीवन में कभी इतना तेज मत दौड़ो कि किसी को तुम्हें रोकने के लिए पत्थर का इस्तेमाल करना पड़े। जाहिर है उस घटना ने उनके ऊपर गहरा असर डाला था। उनका यह वाक्य जीवन के लिए एक जरूरी सूत्र बन गया।

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पहले ईश्वरलाभकरो, फिर धन कमाना। यदि तुम भगवत्प्राप्ति कर लेने के बाद संसार में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारे मन की शांति कभी नष्ट नहीं होगी। श्रीरामकृष्णपरमहंस जयंती [फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, जो इस वर्ष 23फरवरी को है] पर उनके विचार..
नाव पानी में रहे तो कोई हर्ज नहीं, पर नाव के अंदर पानी न रहे, वरना नाव डूब जाएगी। इसी प्रकार साधक संसार में रहे, तो कोई बात नहीं है, परंतु ध्यान रहे कि साधक के भीतर संसार न हो..
तुम रात को आकाश में कितने तारे देखते हो, परंतु सूरज उगने के बाद उन्हें देख नहीं पाते। किंतु इस कारण क्या तुम यह कह सकोगे कि दिन में आकाश में तारे नहीं होते। अज्ञान की अवस्था में तुम्हें ईश्वर के दर्शन नहीं होते, इसलिए ऐसा न कहो कि ईश्वर है ही नहीं। यह दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर जो ईश्वर लाभ के लिए चेष्टा नहीं करता, उसका जन्म लेना ही व्यर्थ है।
जैसी जिसकी भावना होगी, वैसा ही उसे लाभ होगा। भगवान मानो कल्पवृक्ष है। उनसे जो भी व्यक्ति जिस चीज की मांग करता है, उसे वही प्राप्त होता है। गरीब का लडका पढ-लिखकर तथा कडी मेहनत कर हाईकोर्ट का जज बन जाता है और मन ही मन सोचता है- अब मैं मजे में हूं। मैं उन्नति के सर्वोत्तम शिखर पर आ पहुंचा हूं। अब मुझे आनंद है। भगवान भी तब कहते हैं- तुम मजे में ही रहो। किंतु जब वह हाईकोर्ट का जज सेवानिवृत्त होकर पेंशन लेते हुए अपने विगत जीवन की ओर देखता है, तो उसे लगता है कि उसने अपना सारा जीवन व्यर्थ ही गुजार दिया। तब वह कहता है- हाय, इस जीवन में मैंने कौन-सा उल्लेखनीय काम किया? भगवान भी तब कहते हैं- ठीक ही तो है, तुमने किया ही क्या?
संसार में मनुष्य दो तरह की प्रवृत्तियां लेकर जन्म लेता है- विद्या और अविद्या। विद्या मुक्तिपथपर ले जाने वाली प्रवृत्ति है और अविद्या सांसारिक बंधन में डालने वाली। मनुष्य के जन्म के समय ये दोनों प्रवृत्तियां मानो खाली तराजू के पल्लों की तरह समतोलस्थिति में रहती हैं। परंतु शीघ्र ही मानो मनरूपीतराजू के एक पल्ले में संसार के भोग-सुखों का आकर्षण तथा दूसरे में भगवान का आकर्षण स्थापित हो जाता है। यदि मन में संसार का आकर्षण अधिक हो, तो अविद्या का पल्ला भारी होकर झुक जाता है और मनुष्य संसार में डूब जाता है। परंतु यदि मन में भगवान के प्रति अधिक आकर्षण हो, तो विद्या का पल्ला भारी हो जाता है और मनुष्य भगवान की ओर खिंचता चला जाता है।
उस एक ईश्वर को जानो, उसे जानने से तुम सभी कुछ जान जाओगे। एक के बाद शून्य लगाते हुए सैकडों और हजारों की संख्या प्राप्त होती है, परंतु एक को मिटा डालने पर शून्योंका कोई मूल्य नहीं होता। एक ही के कारण शून्योंका मूल्य है। पहले एक, बाद में बहु। पहले ईश्वर, फिर जीव। पहले ईश्वरलाभकरो, फिर धन कमाना। पहले धनलाभ करने की कोशिश मत करो। यदि तुम भगवत्प्राप्ति कर लेने के बाद संसार में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारे मन की शांति कभी नष्ट नहीं होगी।
तुम समाज सुधार करना चाहते हो, तो ठीक है। यह तुम भगवत्प्राप्ति करने के बाद भी कर सकोगे। भगवत्प्राप्ति ही सबसे अधिक आवश्यक है। यदि तुम चाहो, तो तुम्हें अन्य सभी वस्तुएं मिल जाएंगी।
मुसाफिर को नए शहर में पहुंचकर पहले रात बिताने के लिए किसी सुरक्षित डेरे का बंदोबस्त कर लेना चाहिए। डेरे में अपना सामान रखकर वह निश्चिंत होकर शहर देखते हुए घूम सकता है। परंतु यदि रहने का बंदोबस्त न हो, तो रात के समय अंधेरे में विश्राम के लिए जगह खोजने में उसे बहुत तकलीफ उठानी पडती है। उसी प्रकार, इस संसाररूपीविदेश में आकर मनुष्य को पहले ईश्वररूपीचिर-विश्रामधाम प्राप्त कर लेना चाहिए, फिर वह निर्भय होकर अपने नित्य कर्तव्यों को करते हुए संसार में भ्रमण कर सकता है।
बडे-बडे गोदामों में चूहों को पकडने के लिए दरवाजे के पास चूहेदानी रखकर उसमें लाही-मुरमुरे रख दिए जाते हैं। उसकी सोंधी-सोंधीमहक से आकृष्ट होकर चूहे गोदाम में रखे हुए कीमती चावल का स्वाद चखने की बात भूल जाते हैं और चूहेदानी में फंस जाते हैं। जीव का भी ठीक यही हाल है। करोडों विषयसुखोंके घनीभूत समष्टिस्वरूपब्रšानंदके द्वार पर होते हुए भी जीव उस आनंद को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न न कर, संसार के क्षुद्र विषयसुखोंमें रत होकर माया के फंदे में फंस जाते हैं।
भक्ति ही एक मात्र सारवस्तुहै- ईश्वर के प्रति भक्ति। याद रखो कि सूर्यलोक, चंद्रलोक, नक्षत्रलोकआदि तुच्छ विषयों में डूबे रहना ईश्वर की खोज का सही रास्ता नहीं है। भक्ति के लिए साधना करनी पडती है। अत्यंत व्याकुल हृदय से रोते हुए उन्हें पुकारना पडता है। विभिन्न वस्तुओं में बिखरे हुए मन को खींचकर पूरी तरह से ईश्वर में ही लगाना पडता है। वेद-वेदांत हों या कोई शास्त्र- ईश्वर किसी में नहीं है। उनके लिए प्राणों के व्याकुल बिना कहीं कुछ नहीं होगा। खूब भक्ति के साथ व्याकुल होकर उनकी प्रार्थना करनी चाहिए, साधना करनी चाहिए।
छोटा बच्चा घर में अकेले ही बैठे-बैठे खिलौने लेकर मनमाने खेल खेलता रहता है। उसके मन में कोई भय या चिंता नहीं होती। किंतु जैसे ही उसकी मां वहां आ जाती है, वैसे ही वह सारे खिलौने छोडकर उसकी ओर दौड पडता है। तुम लोग भी इस समय धन-मान-यश के खिलौने लेकर संसार में निश्चिंत होकर सुख से खेल रहे हो, कोई भय या चिंता नहीं है। पर यदि तुम एक बार भी उस आनंदमयीमां को देख पाओ, तो फिर तुम्हें धन-मान-यश नहीं भाएंगे, तब तुम सब फेंककर उन्हीं की ओर दौड जाओगे।
धनी के घर के हर एक कमरे में दीया जलता है, लेकिन गरीब आदमी इतना तेल नहीं खर्च कर पाता। देह-मंदिर को भी अंधेरे में नहीं रखना चाहिए, उसमें ज्ञान का दीप जलाना चाहिए। हर जीवात्मा का परमात्मा से संयोग है, इसलिए हर कोई ज्ञानलाभकर सकता है। हर घर में गैस की नली होती है, जिससे गैस कंपनी से गैस आती है। बस, योग्य अधिकारी को अर्जी भेजो, गैस भिजवाने का प्रबंध हो जाएगा और तुम्हारे गैसबत्ती जलने लगेगी।
[रामकृष्ण मठ की पुस्तक अमृतवाणी से]

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मन के तीन रूप माने गए हैं-चेतन, अवचेतन और अचेतन, लेकिन मन की संख्या इतने तक ही सीमित नहीं है। कई बार ये तीन मन तीन हजार बन जाते हैं। कैसे और कब बनता है मन एक से अनेक..?
जब हम कुछ सोचते हैं या किसी से बात करते हैं, तब हमारा एक ही मन सक्रिय रहता है। यहां तक कि जब हम निर्णय लेने के लिए द्वंद्व की स्थिति में रहते हैं, तब भी। हालांकि तब लगता है कि हमारे दो मन हो गए हैं, जिसमें से एक हां कह रहा है तो दूसरा नहीं। लेकिन यहां भी मन एक ही होता है, बस वही मन विभाजित होकर दो हो जाता है।
सामान्यतया मन [चेतना] के तीन स्तर माने गए हैं- चेतन, अवचेतन और अचेतन मन। लेकिन मन की संख्या यहीं तक सीमित नहीं है। ये तीन मन परिवर्तन एवं सम्मिश्रणोंद्वारा तीन हजार मन बन जाते हैं, लेकिन इनका उद्गम इन तीन स्तरों से ही होता है।
चेतन मन वह है, जिसे हम जानते हैं। इसके आधार पर अपने सारे काम करते हैं। यह हमारे मन की जाग्रत अवस्था है। विचारों के स्तर पर जितने भी द्वंद्व, निर्णय या संदेह पैदा होते हैं, वे चेतन मन की ही देन हैं। यही मन सोचता-विचारता है।
लेकिन चेतन मन संचालित होता है अवचेतन और अचेतन मन से। यानी हमारे विचारों और व्यवहार की बागडोर ऐसी अदृश्य शक्ति के हाथ में होती है, जो हमारे मन को कठपुतली की तरह नचाती है। हम जो भी बात कहते हैं, सोचते हैं, उसके मूल में अवचेतन मन होता है।
अवचेतन आधा जाग रहा है और आधा सो रहा है। मूलत:यह स्वप्न की स्थिति है। जिस तरह स्वप्न पर नियंत्रण नहीं होता, उसी प्रकार अवचेतन पर भी नियंत्रण नहीं होता। हम जाग रहे हैं, तो हम फैसला कर सकते हैं कि हमें क्या देखना है, क्या नहीं।लेकिन सोते हुए हम स्वप्न में क्या देखेंगे, यह फैसला नहीं कर सकते। स्वप्न झूठे होकर भी सच से कम नहींलगते।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं, वे अवचेतन मन में आ जाती हैं। फिर कुछ समय बाद वे अचेतन मन में चली जाती हैं। भले ही हम उन्हें भूल जाएं, वे नष्ट नहीं होतीं। फ्रायडका मानना था कि अचेतन मन कबाडखाना है, जहां सिर्फ गंदी और बुरी बातें पडी होती हैं, पर भारतीय विचारकों का मानना है कि संस्कार के रूप में अच्छी बातें भी वहां जाती हैं।
अचेतन एक प्रकार का निष्क्रिय मन है। यहां कुछ नहीं होता। यह भंडार गृह है। हमारा अवचेतन या चेतन मन जब इन वस्तुओं [विचारों] में से किसी की मांग करता है, तब अचेतन मन उसकी सप्लाई कर देता है।
निष्क्रिय होकर भी अचेतन मन में कुछ न कुछ उबलता-उफनता रहता है, जो हमारे व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आता है। हम भले ही अचेतन मन की उपेक्षा करें, लेकिन चेतन मन और अवचेतन मन जो कुछ भी करते हैं, वे सब वही करते हैं, जो अचेतन मन उनसे कराता है।
फ्रायडने बिल्कुल सही कहा था कि मन एक हिमखंड की तरह होता है, जिसका 10प्रतिशत हिस्सा ही ऊपर दिखाई देता है। 90फीसदी भाग तो पानी के अंदर छिपा होता है। इसी तरह युंगने भी कहा था - ज्ञात मन [चेतन] तो केवल छोटे से द्वीप के समान है, पर चारों तरफ फैला महासागर अज्ञात [अचेतन] मन है। यही अज्ञात मन सब कुछ है।

Sunday, March 4, 2012

दिमाग की एक्सरसाइज सूचनाओं को याद रखने में बड़ी मददगार होती हैं.........

आप जो भी याद करने की कोशिश कर रहे हैं , उसे ठीक तरीके से विजुअलाइज करें। सवाल में मौजूद पिक्चर , ग्राफ आदि को दिमाग में बिठाएं। अगर सवाल के अंदर ऐसी कोई पिक्चर नहीं है , तो अपने दिमाग में उस सवाल से संबंधित खुद एक पिक्चर बनाएं। इसके अलावा जो सूचनाएं आप याद करना चाहते हैं , उन्हें किसी चीज के साथ रिलेट कर दें। यह चीज कुछ भी हो सकती है , मसलन कोई घटना , कोई सीन , कोई चुटकुला , कोई दोस्त। एक बच्चे को > < ( ग्रेटर दैन , लेसर दैन) के ये साइन याद रखने में दिक्कत होती थी। उसने खुद एक ट्रिक बनाई। उसने इन दोनों साइन को बंदूक की तरह दिमाग में बिठा लिया। यानी जो बंदूक चला रहा है , वह बड़ा होगा और जिस पर चलाई जा रही है , वह छोटा होगा। इसी तरह केमिस्ट्री के एक स्टूडेंट ने पीरियॉडिक टेबल के एलिमेंट्स को याद करने के लिए छोटे-छोटे मजेदार सूत्र बना लिए। मसलन बेमग के सर बेरे (बेरिलियम , मैग्निशियम , कैल्शियम , स्ट्रॉन्शियम , बेरियम , रेडियम)। इसी तरह 10 नंबरों का कोई फोन नंबर याद रखना चाहते हैं तो उसे टुकड़ों में याद रख सकते हैं। मसलन 9818393146 सीधे याद रखने की बजाय 981-8393-146 के तौर पर याद रखना आसान है। कंफ्यूजन पैदा करने वाले कंसेप्ट को याद रखने के ऐसे और भी आसान तरीके हो सकते हैं।

कभी-कभार अपने पढ़ाई के रुटीन में बदलाव लाकर देखें। अगर पढ़ने की आपकी एक ही जगह है तो कभी किसी और जगह बैठकर पढ़ें। अगर आप ज्यादातर रात में पढ़ते हैं , तो कभी सुबह पढ़कर देखें। ऐसा करने से चीजों को ज्यादा अच्छी तरह याद रख पाएंगे।

जो कंसेप्ट सीखे हैं , उन्हें पक्का करने का सबसे अच्छा तरीका है , उस कंसेप्ट को किसी दूसरे को समझाना। अपने किसी दोस्त को ही पढ़ा दीजिए यह कंसेप्ट। दोस्त भी खुश हो जाएगा और आपकी इस पर ग्रिप भी अच्छी हो जाएगी।

दिमाग की एक्सरसाइज सूचनाओं को याद रखने में बड़ी मददगार होती हैं। दिमाग की एक्सरसाइज के लिए कई काम हैं , जो आप कर सकते हैं। कोई नई भाषा सीखिए , कोई इंस्ट्रूमेंट सीखिए , सुडोकू या पजल हल कीजिए।

जो बच्चे दिन की शुरुआत एक्सरसाइज के साथ करते हैं , उनकी मेमरी बेहतर होती है। कोशिश करें , एक्सरसाइज सुबह के वक्त हो। थोड़ी रनिंग , जॉगिंग , साइक्लिंग काफी फायदेमंद हो सकती हैं। इससे नए बेन सेल्स बनते हैं।

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विवाह जीवन का अहम पड़ाव होता है। इसके बाद लड़के और लड़की दोनों की जिंदगी काफी बदल जाती है। बड़ों से दोनों को ही नए रिश्ते में निबाह करने और सच्च साथी साबित होने के
लिए समझाइशें दी जाती हंै। कोशिश होती है कि दोनों जीवनसाथी इस बदलाव के लिए तैयार हो सकें। लेकिन इन तैयारियों के साथ साथ एक और पहलू पर ध्यान देने की जरूरत है। वह है प्रीमैराइिटल
काउंसलिंग। वैवाहिक जीवन की तैयारी में कुछ जरूरी बातें होती हैं, जो पति पत्नी के मानसिक, शारीरिक और आर्थिक स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण असर डाल सकती हैं। काउंसलिंग के दौरान विशेषज्ञ के जवाब जोड़े को सही दिशा देने के साथ साथ आश्वस्त करने में कामयाब होते हैं और युगल भी बेझिझक मन में छिपी शंकाओं का समाधान कर पाते हैं। इस दौरान पता लगाया जा सकता है कि विवाह के समय यदि मासिक की तारीख आ रही है, तो क्या उपाय हो सकता है। संबंध स्थापित करने के बाद किस तरह की साफ सफाई का ख्याल रखना होता है। नव युगल की उम्र व सेहत के लिहाÊा से गर्भ धारण का सही समय क्या हो सकता है या फिर जोड़ा कब तक परिवार शुरू करने के लिए रुक सकता है। सबसे जरूरी यह पता चल जाता है कि कौन सी पद्धति अपनाई जाए, जिससे गर्भ न
ठहरे और भविष्य में भी परेशानी का सामना न करना पड़े। कह सकते हैं, यह सलाह नए नए बने घरौंदे की नींव को मजबूती देने का पहला कदम होता है।


एक वक्त बाद विवाह के कुछ समय बाद जीवन पटरी पर लौट आता है। पति पत्नी दोनों को साझे जीवन का मूल मंत्र समझ में आ जाता है। समान्यतौर पर यही संकेत है एक और
अहम बदलाव का। एक नए जीवन को खुद से जोड़ने का। घर में गूंजती किलकारी सुनने और शिशु में खुद के बचपन की झलकियां पाने को परिवार के कई मन लालायित नजर आते हैं।
पति पत्नी भी अपने जीवन की पूर्णता को पाने का फैसला कर लेते हैं।


इन सजीले सपनों को साकार करने में प्रीकंसेह्रश्वशनल काउंसलिंग की भूमिका अहम हो सकती है। प्री कंसेह्रश्वशनल काउंसलिंग यानी वो जानकारी जो गर्भधारण करने से पहले ले लेनी चाहिए। स्वस्थ शिशु
को जन्म देने और स्वस्थ मां बनने के लिए इस सलाह के काफी मायने हैं। यदि शादी को साल दो साल बीत चुके हैं, तो गर्भधारण करने की तैयारी करने से पहले यह देखना होगा कि परिवार नियोजन के लिए कौन सी पद्धति का सहारा लिया गया था। यदि वे सिर्फ कंडोम का इस्तेमाल कर रहे थे, तब तो कोई बात नहीं। लेकिन यदि कॉन्ट्रासेह्रिश्वटव पिल्स ले रहे थे, तो कम से कम गोली तीन महीने छोड़ने के बाद ही गर्भधारण करना उचित कदम होगा। दूसरी बात, यह जानना जरूरी होगा कि पति पत्नी दानों के परिवारों में कोई वंशानुगत बीमारी तो नहीं है। परिवार में किसी को डायबिटीज, थायरॉइड, लड प्रेशर आदि की समस्या हो, तो गर्भधारण करने के पहले इनकी जांच करना भी जरूरी है। इन सभी बातों का असर गर्भस्थ शिशु पर पड़ सकता है। पति पत्नी का ग्रुप, एच आई वी
और हैपेटाइटिस बी की जानकारी आधुनिक जेन्टर्स में की जाती है।


गहरे हैं मायने इन दोनों सलाहों के मायने गहरे हैं और रिश्तों की मजबूती बनाए रखने और सही दिशा में कदम बढ़ाने में इनका खासा महत्व है। एक समय तक पति पत्नी एक दूसरे को जानना समझना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए जोड़े के पास कितना समय है, ये जानना भी महत्वपूर्ण होता है। मां बनने की प्रक्रिया के दौरान और बाद भी एक महिला को कई तरह के शारीरिक और मानसिक
परिवर्तनों के दौर से गुजरना होता है। इसके लिए उसे पूरी तरह से तैयारी करनी होती है। होने वाले पापा को भी अपनी Êिा मेदारियों का भान होना जरूरी है, ताकि वह पत्नी को समझे और सहयोग दे पाए। इसलिए साथियों को हर पहलू पर गौर करने के बाद ही बच्चे को जीवन देने के बारे में फैसला करना चाहिए लेकिन वक्त की अपनी दरकार है। डॉक्टरों के मुताबिक एक निश्चत समयावधि के अंदर गर्भधारण करने की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। यदि इसके बाद गर्भधारण करने में कोई परेशानी आए, तो समय रहते उपचार भी शुरू किया जा सकता है।

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थोड़ा ज्यादा कुदरत के लिए भी मायने रखता है। नदी दौड़ती रहती है अपने ही दो तटों के बीच। सबकुछ सामान्य रूप से चलता रहता है। अपनी ही हदों में बंधी नदी सूख भी जाती है। सागर भी ठांठें मारता है। तट के दायरे तोड़ता रहता है, लेकिन फिर भी किनारों से छलक नहीं पाता। उसे भी कुछ नया करने के लिए या होने के लिए चाहिए, कुछ अतिरिक्त, वह एक अलग कदम। आसमान
मेहरबान होता है, तो मेह बरसता है और तब नदी किनारों से ऊपर उठती है। ज्वार के हालात में सागर छलकता है।


ज़िंदगी नए-नए रास्तों पर मुड़ती रहती है। लेकिन जो एक कदम ज्यादा चलते हैं, वे उन मोड़ों से झांक लेते हैं। बादल कभी सफेद होते हैं, तो कभी पानी की बूंदों से भरकर श्याम हो जाते हैं। आसमान को ही नहीं, सूरज को भी ढांप लेते हैं। इनके बीच से वो लोग रोशनी छांट लेते हैं, जो एक नज़र ज्यादा देखने में दिलचस्पी रखते हैं।


एक मुस्कान, एक किरण, एक मौका, एक माफी, एक समझ, एक क्षण, एक मीठा बोल..कुछ ही तो धूप के टुकड़े ज्यादा मांगता है मन का आंगन, खिल जाने के लिए। और ज्यादा जगमगाने के लिए। एक दिन ज्यादा मिलता है चार साल में। एक ज्यादा मुस्कान से, एक कदम से, एक साथ से, चलिए, आज धूप में एक किरण अपनी भी जोड़ दें!

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एग्जाम से पहले होने वाला तनाव जितना कॉमन होता है , उससे बचना उतना ही जरूरी।

पेपर को लेकर अगर स्टूडेंट के मन में चिंता घर कर गई है तो उसके सोचने का तरीका मल्टिडायरेक्शनल हो जाएगा। तमाम तरह की बातें उसके दिमाग में एक साथ चलेंगी और यही चीज उसके अंदर तनाव पैदा करेगी। दूसरी तरफ जब सोचने का तरीका यूनिडायरेक्शनल हो जाता है यानी आप एक ही दिशा में सोच रहे हैं और रिजल्ट ओरिएंटेड सोच रहे हैं तो समस्या का हल निकलता है।

एग्जाम को लेकर लगातार चिंता करते रहने से बच्चों की नींद पर असर होने लगता है और जो भी नींद आती है , उसकी क्वॉलिटी अच्छी नहीं होती। उन्होंने जो याद किया , नींद पूरी न होने से वह भी उन्हें याद नहीं रहेगा।

तमाम स्टूडेंट्स एग्जाम वाली रात को ज्यादा देर तक जागकर पढ़ने की कोशिश करते हैं। उन्हें लगता है कि पूरी रात पढ़कर वे अच्छा रिजल्ट हासिल कर लेंगे , लेकिन यह पूरी तरह से एक धोखा है। रात भर जागने से कभी नंबर अच्छे नहीं आते। दूसरी तरफ उनकी नींद पूरी नहीं होती और सुबह एग्जाम में वे जो कर सकते थे , उसे भी कर पाने की स्थिति में नहीं होते। तय आपको करना है कि सुबह होने वाली एग्जाम की रेस में आप फ्रेश होकर दौड़ना चाहते हैं या फिर रात भरके थके कदमों के साथ। एक्सपर्ट यही सलाह देते हैं कि बच्चे एग्जाम की रात आठ घंटे की गहरी नींद जरूर लें। अगर आप पूरी नींद लेकर एग्जाम देने जा रहे हैं तो हो सकता है कि आप उन सवालों को भी हल कर लें , जिन्हें आपने छह महीने पहले पढ़ा था।

अगर आपने साल भर पढ़ा है तो एग्जाम से पहली रात टेंशन न लें। तानकर सोएं। पेपर अच्छा ही होगा। ऐसा न सोचें कि एक रात पहले अगर नहीं पढ़ा , तो पेपर खराब हो जाएगा।

एग्जाम से पहली रात चिंतारहित होकर थोड़ी देर वॉक करें। हल्का खाना खाएं और वक्त पर सो जाएं। स्कूल के रास्ते में किताब में से बार-बार कुछ देखना या दोस्त से पूछना जैसी बातें बेकार हैं। इससे मन भटकता है। शांत मन से पेपर देने जाएं।

अगर फिर भी किसी को तनाव महसूस हो रहा है तो उसे गहरी लंबी सांसें लेनी चाहिए। इससे मांसपेशियों को आराम मिलता है और विचारों पर ध्यान केंदित करने में मदद मिलती है।

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युवा दंपत्तियों में कलहपूर्ण दाम्पत्य और अशांत गृहस्थी आज आम बात है। पति-पत्नी में वैचारिक तालमेल का अभाव, एक-दूसरे पर अविश्वास और धोखा ये मामले अक्सर देखने में आते हैं। आखिर क्यों हमारे दाम्पत्य अशांत और रिश्ते विश्वास हीन होते जा रहे हैं। इसके लिए कुछ चारित्रिक दोष तो कुछ हमारे वैवाहिक जीवन की शुरुआत जिम्मेदार होती है।

वैवाहिक जीवन की शुरुआत कुछ ऐसी होनी चाहिए, जिसमें हम एक-दूसरे के प्रति अपना भरोसा और समर्पण देख-दिखा सकें। आज के युवा वैवाहिक जीवन और व्यक्तिगत जीवन दोनों को अलग रखना चाहते हैं। इसी की होड़ में रिश्तों की मर्यादाएं टूटती हैं और गृहस्थी का कलह सड़क का तमाशा बन जाता है।

आइए, राम सीता के वैवाहिक जीवन से सीखें कि युवा दम्पत्तियों को कैसे अपनी शादीशुदा जिंदगी की शुरुआत करनी चाहिए। भगवान राम और सीता का विवाह हुआ। बारात जनकपुरी से अयोध्या आई। भारी स्वागत हुआ। राजमहल में सारी रस्में पूरी की गईं।

भगवान राम और सीता का दाम्पत्य शुरू हुआ। पहली बार भगवान ने पत्नी सीता बातचीत की। बात समर्पण से शुरू हुई। राम ने सीता से पहली बात जो कही वह समर्पण की थी। उन्होंने सीता को वचन दिया कि वे जीवनभर उसी के प्रति निष्ठावान रहेंगे। उनके जीवन में कभी कोई दूसरी स्त्री नहीं आएगी। सीता ने भी वचन दिया, हर सुख और दुख में साथ रहेगी।

पहले वार्तालाप में भरोसे का वादा किया गया। एक-दूसरे के प्रति समर्पण दिखाया। तभी दाम्पत्य दिव्य हुआ। कभी आपसी विवाद नहीं हुए। हमेशा राम सीता के और सीता राम के कल्याण की सोचती थी। व्यक्तिगत अहंकार और रुचियां कभी गृहस्थी में नहीं आए।

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आमतौर पर दूध में 85 फीसदी पानी होता है और बाकी हिस्से में ठोस तत्व यानी मिनरल्स व फैट होता है। बाजार में गाय-भैंस के अलावा विभिन्न कंपनियों का पैकेट वाला दूध मिलता है। दूध प्रोटीन , कैल्शियम और राइबोफ्लेविन (विटामिन बी-2) युक्त तो होता ही है , इसमें विटामिन ए , डी , के और ई समेत फॉस्फोरस , मैग्नीशियम , आयोडीन समेत कई मिनरल और फैट तथा एनर्जी भी होती है। इसके अलावा इसमें कई एंजाइम और लिविंग ब्लड सेल्स भी मिलते हैं। डाइटिशियंस की मानें तो ये सब पोषक तत्व हमारी मांसपेशियों और हड्डियों के गठन में अहम भूमिका निभाते हैं। प्रोटीन ऐंटिबॉडीज के रूप में काम करता है और हमें इन्फेक्शन से बचाता है।

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किसी गांव में दो भाई रहते थे। बडे़ की शादी हो गई थी। उसके दो बच्चे भी थे। लेकिन छोटा भाई अभी कुंवारा था। दोनों साझा खेती करते थे। एक बार उनके खेत में गेहूं की फसल पककर तैयार हो गई। दोनों ने मिलकर फसल काटी और गेहूं तैयार किया। इसके बाद दोनों ने आधा-आधा गेहूं बांट लिया। अब उन्हें ढोकर घर ले जाना बचा था। रात हो गई थी इसलिए यह काम अगले दिन ही हो पाता। रात में दोनों को फसल की रखवाली के लिए खलिहान पर ही रुकना था। दोनों को भूख भी लगी थी। दोनों ने बारी-बारी से खाने की सोची।

पहले बड़ा भाई खाना खाने घर चला गया। छोटा भाई खलिहान पर ही रुक गया। वह सोचने लगा- भैया की शादी हो गई है, उनका परिवार है इसलिए उन्हें ज्यादा अनाज की जरूरत होगी। यह सोचकर उसने अपने ढेर से कई टोकरी गेहूं निकालकर बड़े भाई वाले ढेर में मिला दिया। बड़ा भाई थोड़ी देर में खाना खाकर लौटा। उसके बाद छोटा भाई खाना खाने घर चला गया। बड़ा भाई सोचने लगा - मेरा तो परिवार है, बच्चे हैं, वे मेरा ध्यान रख सकते हैं। लेकिन मेरा छोटा भाई तो एकदम अकेला है, इसे देखने वाला कोई नहीं है। इसे मुझसे ज्यादा गेहूं की जरूरत है। उसने अपने ढेर से उठाकर कई टोकरी गेहूं छोटे भाई वाले गेहूं के ढेर में मिला दिया! इस तरह दोनों के गेहूं की कुल मात्रा में कोई कमी नहीं आई। हां, दोनों के आपसी प्रेम और भाईचारे में थोड़ी और वृद्धि जरूर हो गई।