Monday, March 5, 2012

बालक अपने माता-पिता की विरासत को साथ लेकर चलता है.............

देश के जाने माने वैज्ञानिक सीवी रमन ने 28 फरवरी 1928 को अपनी विश्व विख्यात खोज रमन प्रभाव की घोषणा की थी। उनकी इसी उपलब्धि के उपलक्ष्य में भारत सरकार ने पहली बार 28 फरवरी 1987 को विज्ञान दिवस के रूप में मनाया। तभी से हर साल राष्ट्रीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी परिषद के तत्वाधान में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस का आयोजन किया जा रहा है। खोज के लिए उन्हें 1930 में भौतिकी का नोबेल प्राइज मिला। उनकी महान उपलब्धियों और अद्वितीय प्रतिभा को देखते हुए उन्हें 1954 मे भारत रत्न दिया गया।
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बच्चों को बिना दोषी महसूस कराए माता-पिता को उनकी गलती बताने की कला सीखनी चाहिए। बच्चों के मन से तिरस्कार के भय को हटाकर उन्हें अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत दिलाने की जरूरत है।
एक कहावत है कि बालक अपने माता-पिता की विरासत को साथ लेकर चलता है। सिर्फ आर्थिक विरासत को ही नहीं, बल्कि उनके चरित्र और आचरण को भी।
बालक अपने सीखने की शुरुआत माता-पिता की नकल करके करता है। सामान्य रूप से बच्चों की नजर बडी तेज होती है। वे हर क्षण सब कुछ ध्यान से देख रहे होते हैं। मां-बाप जब गुस्सा होते हैं, झूठ बोलते हैं या किसी का मजाक बना रहे होते हैं, उस समय बच्चे उसे आत्मसात कर लेते हैं। माता-पिता इस सच्चाई से बेखबर होते हैं कि बच्चे हर पल उन्हें परख रहे हैं। इसलिए माता-पिता का सहज रहना बहुत जरूरी है, क्योंकि माता-पिता का तनाव या आनंद, उनका चरित्र और मानसिकता बालक में स्थानांतरित हो रही होती है। अगर माता-पिता हिंसक हैं, तो बालक भी आमतौर पर हिंसक बनेगा। अगर वे भक्तिमयहैं या ऐसा होने का ढोंग भी करते हैं, तो भी बालक में भक्ति का बीज अंकुरित होगा।
माता-पिता के लिए सबसे बडी चुनौती है कि बच्चे हीनभावना या अहंकार से ग्रसित न हो जाएं। कई परिवारों में माता-पिता बच्चों को गलत बात के लिए कभी डांटते नहीं। इससे बच्चे कमजोर बन जाते हैं। दूसरी तरफ, कई लोग बच्चे को टोकते रहते हैं। इससे बच्चे या तो बहुत भयभीत रहते हैं या विद्रोही बन जाते हैं।
सबसे अच्छा तरीका यह है कि बच्चे को बिना दोषी महसूस कराए हुए माता-पिता उनकी गलती बताने की कला सीख जाएं। बच्चों के मन से तिरस्कार के भय को हटाकर उन्हें अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत दिलाने की जरूरत है। संस्कृत में कहावत है कि जब आपकी संतान 16साल की हो जाए, तो उनके साथ मित्रवत व्यवहार करें। उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं, यह मत कहिए। उनसे बस उनकी मुश्किलों के बारे में सुनिए। तब वे आपसे खुलकर बात करेंगे।
आज लोगों में जाति, धर्म, व्यवसाय और कई सारी चीजों के प्रति पूर्वाग्रह है। यह आवश्यक है कि बच्चों को इतना खुलापनमिले, ताकि वे अपनी दृष्टि विशाल रख सकें और जडें मजबूत। जिन बच्चों को नैतिक और धार्मिक मूल्य नहीं सिखाए जाते, वे बडे होकर जड से उखडे हुए वृक्ष जैसे हो जाते हैं। इसीलिए माता-पिता को सुनिश्चित करना है कि जब तक बालक की शाखाएं फैलने लगें, तब तक उनकी जडें मजबूत हो जाएं। बालक को बुद्धिमान और निष्पक्ष बनाने के लिए उसकी सांस्कृतिक और अध्यात्मिक नींव मजबूत होना जरूरी है।
यह अत्यंत जरूरी है कि बच्चे बहु-सांस्कृतिक, बहु-धार्मिक शिक्षा प्राप्त करें। दुनिया में कट्टरपन और धार्मिक आतंकवाद को रोकने के लिए यह आवश्यक है। अगर बालक अन्य सभी धमरें, संस्कृतियों और रीति-रिवाजों के बारे में थोडा-बहुत सीखता हुआ बडा हो, तो सबके साथ उसका भाईचारा बना रहेगा। अगर बच्चा हरेक धर्म के बारे में जान ले, तो उसे दूसरे धमरें के प्रति नफरत नहीं होगी। माता-पिता को अपने बच्चों को भविष्य में एक बेहतर इंसान बनाने का प्रयत्न अभी से करना चाहिए।

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हमारे समाज में आमतौर पर विवाह माता-पिता की मर्जी से होता है। अक्सर लोग बच्चों का विवाह तय करते समय उन्हीं कीए इच्छा-अनिच्छा का ध्यान नहीं रखते। विवाह सिर्फ दो लोगों को साथ रखने की एक रस्म नहीं है, यह भावी सृष्टि के निर्माण की एक दिव्य परंपरा है।

पुरुष प्रधान समाज में लड़कों को तो फिर भी अपनी पसंद-नापसंद रखने का अधिकार मिल जाता है लेकिन जो वंश को चलाने का आधार मानी जाती है, उन्हीं लड़कियों से अक्सर उनकी पसंद नहीं पूछी जाती। हमारे धर्म ने स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार दिए हैं। लड़कियों से उनकी इच्छा पूछी जाए। वे किस के साथ अपना जीवन बिताना चाहती हैं।

हमारे ग्रंथों में स्वयंवर की परंपरा रही है। जिसमें लड़की अपना वर खुद चुन सकती थी, उसके फैसले का सम्मान भी किया जाता था। हम जितने आधुनिक पहनावे और रहन-सहन में हुए हैं, उससे ज्यादा अपने विचारों और मानसिकता में पिछड़े भी हैं।

महाभारत में एक कन्या का विवाह देखिए। पुरातन काल में विचारों की आधुनिकता का इससे अच्छा उदाहरण नहीं मिल सकता। मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री जब विवाह के योग्य हुई, तो लोगों ने उन्हें अच्छे-अच्छे राजकुमारों के प्रस्ताव भेजने शुरू किए। अश्वपति ने सावित्री को बुलाकर उससे कहा कि उसे अब विवाह कर लेना चाहिए। विवाह के लिए मैं किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाऊंगा। तुम सेना की एक टुकड़ी ले जाकर पूरे भारत वर्ष का भ्रमण करो।

अपनी पसंद से कोई वर चुनों। तुम जिसे पसंद करोगी मैं पूरे सम्मान से उसके साथ तुम्हारा विवाह कर दूंगा। सावित्री ने एक वर्ष तक पूरे भारत वर्ष का भ्रमण किया। अंत में उसने सत्यवान नाम के एक राजकुमार को पसंद किया। सत्यवान के पिता भी राजा थे लेकिन उनके भाइयों ने धोखे से उनका राज्य छिन लिया। इस कारण वे वनवासी हो गए थे।

सत्यवान की उम्र मात्र एक वर्ष ही शेष थी, फिर भी अश्वपति ने अपनी बेटी की इच्छा का मान रखते हुए, उसका विवाह सत्यवान से कर दिया। इसी सावित्री ने अपने तप बल से सत्यवान के प्राण यमराज से वापस मांग लिए थे।

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प्रसिद्ध उद्योगपति जॉनसन एक बार किसी कस्बे से होकर गुजर रहे थे। उनकी तेज रफ्तार कार जब उस कस्बे से निकलकर खुले में आई तभी अचानक एक तेज आवाज के साथ एक बड़ा पत्थर उनकी कार से आ टकराया और कार में खरोंच का एक बड़ा निशान छोड़ गया। जॉनसन ने तत्काल ब्रेक लगाया और कार से उतरकर उधर देखने लगे जिधर से पत्थर आया था। वह गुस्से से थर-थर कांपने लगे थे। तभी उनकी नजर एक लड़के पर पड़ी जो वहीं सहमा सा खड़ा था। वह उसे थप्पड़ जड़ने ही वाले थे कि लड़का रुआंसा होकर बोला- पत्थर फेंकने के लिए माफी चाहता हूं। मगर यहां से गुजर रही सभी गाडि़यां इतनी तेज दौड़ रही हैं कि मेरे चिल्लाने की आवाज किसी के कानों में नहीं पड़ रही। पिछली गली के कोने में मेरा बड़ा भाई अपने वील-चेयर से गिरकर जमीन पर पड़ा है। मैं उसे खुद नहीं उठा पाऊंगा इसलिए मदद के लिए बड़ी देर से चिल्ला रहा हूं। जब किसी ने भी नहीं रोका तो मुझे मजबूरन आपकी गाड़ी पर पत्थर मारना पड़ा। आप ही बताइए मैं क्या करता। क्या मैं अपने भाई को उसके हाल पर छोड़ दूं?

लड़के की मासूमियत भरी बात सुनते ही जॉनसन का गुस्सा उतर गया। वह ग्लानि से भर उठे। वह उस लड़के के साथ उसके भाई के पास पहुंचे और उन्होंने उसे सहारा देकर व्हील चेयर पर बिठाया। दोनों भाइयों ने जॉनसन के प्रति आभार व्यक्त किया। जॉनसन इस घटना को भुला नहीं पाए। काफी दिनों बाद जब उन्होंने अपनी जीवनी लिखी तो उसमें एक खास वाक्य लिखा जो काफी मशहूर हुआ। वह वाक्य था-जीवन में कभी इतना तेज मत दौड़ो कि किसी को तुम्हें रोकने के लिए पत्थर का इस्तेमाल करना पड़े। जाहिर है उस घटना ने उनके ऊपर गहरा असर डाला था। उनका यह वाक्य जीवन के लिए एक जरूरी सूत्र बन गया।

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पहले ईश्वरलाभकरो, फिर धन कमाना। यदि तुम भगवत्प्राप्ति कर लेने के बाद संसार में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारे मन की शांति कभी नष्ट नहीं होगी। श्रीरामकृष्णपरमहंस जयंती [फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, जो इस वर्ष 23फरवरी को है] पर उनके विचार..
नाव पानी में रहे तो कोई हर्ज नहीं, पर नाव के अंदर पानी न रहे, वरना नाव डूब जाएगी। इसी प्रकार साधक संसार में रहे, तो कोई बात नहीं है, परंतु ध्यान रहे कि साधक के भीतर संसार न हो..
तुम रात को आकाश में कितने तारे देखते हो, परंतु सूरज उगने के बाद उन्हें देख नहीं पाते। किंतु इस कारण क्या तुम यह कह सकोगे कि दिन में आकाश में तारे नहीं होते। अज्ञान की अवस्था में तुम्हें ईश्वर के दर्शन नहीं होते, इसलिए ऐसा न कहो कि ईश्वर है ही नहीं। यह दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर जो ईश्वर लाभ के लिए चेष्टा नहीं करता, उसका जन्म लेना ही व्यर्थ है।
जैसी जिसकी भावना होगी, वैसा ही उसे लाभ होगा। भगवान मानो कल्पवृक्ष है। उनसे जो भी व्यक्ति जिस चीज की मांग करता है, उसे वही प्राप्त होता है। गरीब का लडका पढ-लिखकर तथा कडी मेहनत कर हाईकोर्ट का जज बन जाता है और मन ही मन सोचता है- अब मैं मजे में हूं। मैं उन्नति के सर्वोत्तम शिखर पर आ पहुंचा हूं। अब मुझे आनंद है। भगवान भी तब कहते हैं- तुम मजे में ही रहो। किंतु जब वह हाईकोर्ट का जज सेवानिवृत्त होकर पेंशन लेते हुए अपने विगत जीवन की ओर देखता है, तो उसे लगता है कि उसने अपना सारा जीवन व्यर्थ ही गुजार दिया। तब वह कहता है- हाय, इस जीवन में मैंने कौन-सा उल्लेखनीय काम किया? भगवान भी तब कहते हैं- ठीक ही तो है, तुमने किया ही क्या?
संसार में मनुष्य दो तरह की प्रवृत्तियां लेकर जन्म लेता है- विद्या और अविद्या। विद्या मुक्तिपथपर ले जाने वाली प्रवृत्ति है और अविद्या सांसारिक बंधन में डालने वाली। मनुष्य के जन्म के समय ये दोनों प्रवृत्तियां मानो खाली तराजू के पल्लों की तरह समतोलस्थिति में रहती हैं। परंतु शीघ्र ही मानो मनरूपीतराजू के एक पल्ले में संसार के भोग-सुखों का आकर्षण तथा दूसरे में भगवान का आकर्षण स्थापित हो जाता है। यदि मन में संसार का आकर्षण अधिक हो, तो अविद्या का पल्ला भारी होकर झुक जाता है और मनुष्य संसार में डूब जाता है। परंतु यदि मन में भगवान के प्रति अधिक आकर्षण हो, तो विद्या का पल्ला भारी हो जाता है और मनुष्य भगवान की ओर खिंचता चला जाता है।
उस एक ईश्वर को जानो, उसे जानने से तुम सभी कुछ जान जाओगे। एक के बाद शून्य लगाते हुए सैकडों और हजारों की संख्या प्राप्त होती है, परंतु एक को मिटा डालने पर शून्योंका कोई मूल्य नहीं होता। एक ही के कारण शून्योंका मूल्य है। पहले एक, बाद में बहु। पहले ईश्वर, फिर जीव। पहले ईश्वरलाभकरो, फिर धन कमाना। पहले धनलाभ करने की कोशिश मत करो। यदि तुम भगवत्प्राप्ति कर लेने के बाद संसार में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारे मन की शांति कभी नष्ट नहीं होगी।
तुम समाज सुधार करना चाहते हो, तो ठीक है। यह तुम भगवत्प्राप्ति करने के बाद भी कर सकोगे। भगवत्प्राप्ति ही सबसे अधिक आवश्यक है। यदि तुम चाहो, तो तुम्हें अन्य सभी वस्तुएं मिल जाएंगी।
मुसाफिर को नए शहर में पहुंचकर पहले रात बिताने के लिए किसी सुरक्षित डेरे का बंदोबस्त कर लेना चाहिए। डेरे में अपना सामान रखकर वह निश्चिंत होकर शहर देखते हुए घूम सकता है। परंतु यदि रहने का बंदोबस्त न हो, तो रात के समय अंधेरे में विश्राम के लिए जगह खोजने में उसे बहुत तकलीफ उठानी पडती है। उसी प्रकार, इस संसाररूपीविदेश में आकर मनुष्य को पहले ईश्वररूपीचिर-विश्रामधाम प्राप्त कर लेना चाहिए, फिर वह निर्भय होकर अपने नित्य कर्तव्यों को करते हुए संसार में भ्रमण कर सकता है।
बडे-बडे गोदामों में चूहों को पकडने के लिए दरवाजे के पास चूहेदानी रखकर उसमें लाही-मुरमुरे रख दिए जाते हैं। उसकी सोंधी-सोंधीमहक से आकृष्ट होकर चूहे गोदाम में रखे हुए कीमती चावल का स्वाद चखने की बात भूल जाते हैं और चूहेदानी में फंस जाते हैं। जीव का भी ठीक यही हाल है। करोडों विषयसुखोंके घनीभूत समष्टिस्वरूपब्रšानंदके द्वार पर होते हुए भी जीव उस आनंद को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न न कर, संसार के क्षुद्र विषयसुखोंमें रत होकर माया के फंदे में फंस जाते हैं।
भक्ति ही एक मात्र सारवस्तुहै- ईश्वर के प्रति भक्ति। याद रखो कि सूर्यलोक, चंद्रलोक, नक्षत्रलोकआदि तुच्छ विषयों में डूबे रहना ईश्वर की खोज का सही रास्ता नहीं है। भक्ति के लिए साधना करनी पडती है। अत्यंत व्याकुल हृदय से रोते हुए उन्हें पुकारना पडता है। विभिन्न वस्तुओं में बिखरे हुए मन को खींचकर पूरी तरह से ईश्वर में ही लगाना पडता है। वेद-वेदांत हों या कोई शास्त्र- ईश्वर किसी में नहीं है। उनके लिए प्राणों के व्याकुल बिना कहीं कुछ नहीं होगा। खूब भक्ति के साथ व्याकुल होकर उनकी प्रार्थना करनी चाहिए, साधना करनी चाहिए।
छोटा बच्चा घर में अकेले ही बैठे-बैठे खिलौने लेकर मनमाने खेल खेलता रहता है। उसके मन में कोई भय या चिंता नहीं होती। किंतु जैसे ही उसकी मां वहां आ जाती है, वैसे ही वह सारे खिलौने छोडकर उसकी ओर दौड पडता है। तुम लोग भी इस समय धन-मान-यश के खिलौने लेकर संसार में निश्चिंत होकर सुख से खेल रहे हो, कोई भय या चिंता नहीं है। पर यदि तुम एक बार भी उस आनंदमयीमां को देख पाओ, तो फिर तुम्हें धन-मान-यश नहीं भाएंगे, तब तुम सब फेंककर उन्हीं की ओर दौड जाओगे।
धनी के घर के हर एक कमरे में दीया जलता है, लेकिन गरीब आदमी इतना तेल नहीं खर्च कर पाता। देह-मंदिर को भी अंधेरे में नहीं रखना चाहिए, उसमें ज्ञान का दीप जलाना चाहिए। हर जीवात्मा का परमात्मा से संयोग है, इसलिए हर कोई ज्ञानलाभकर सकता है। हर घर में गैस की नली होती है, जिससे गैस कंपनी से गैस आती है। बस, योग्य अधिकारी को अर्जी भेजो, गैस भिजवाने का प्रबंध हो जाएगा और तुम्हारे गैसबत्ती जलने लगेगी।
[रामकृष्ण मठ की पुस्तक अमृतवाणी से]

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मन के तीन रूप माने गए हैं-चेतन, अवचेतन और अचेतन, लेकिन मन की संख्या इतने तक ही सीमित नहीं है। कई बार ये तीन मन तीन हजार बन जाते हैं। कैसे और कब बनता है मन एक से अनेक..?
जब हम कुछ सोचते हैं या किसी से बात करते हैं, तब हमारा एक ही मन सक्रिय रहता है। यहां तक कि जब हम निर्णय लेने के लिए द्वंद्व की स्थिति में रहते हैं, तब भी। हालांकि तब लगता है कि हमारे दो मन हो गए हैं, जिसमें से एक हां कह रहा है तो दूसरा नहीं। लेकिन यहां भी मन एक ही होता है, बस वही मन विभाजित होकर दो हो जाता है।
सामान्यतया मन [चेतना] के तीन स्तर माने गए हैं- चेतन, अवचेतन और अचेतन मन। लेकिन मन की संख्या यहीं तक सीमित नहीं है। ये तीन मन परिवर्तन एवं सम्मिश्रणोंद्वारा तीन हजार मन बन जाते हैं, लेकिन इनका उद्गम इन तीन स्तरों से ही होता है।
चेतन मन वह है, जिसे हम जानते हैं। इसके आधार पर अपने सारे काम करते हैं। यह हमारे मन की जाग्रत अवस्था है। विचारों के स्तर पर जितने भी द्वंद्व, निर्णय या संदेह पैदा होते हैं, वे चेतन मन की ही देन हैं। यही मन सोचता-विचारता है।
लेकिन चेतन मन संचालित होता है अवचेतन और अचेतन मन से। यानी हमारे विचारों और व्यवहार की बागडोर ऐसी अदृश्य शक्ति के हाथ में होती है, जो हमारे मन को कठपुतली की तरह नचाती है। हम जो भी बात कहते हैं, सोचते हैं, उसके मूल में अवचेतन मन होता है।
अवचेतन आधा जाग रहा है और आधा सो रहा है। मूलत:यह स्वप्न की स्थिति है। जिस तरह स्वप्न पर नियंत्रण नहीं होता, उसी प्रकार अवचेतन पर भी नियंत्रण नहीं होता। हम जाग रहे हैं, तो हम फैसला कर सकते हैं कि हमें क्या देखना है, क्या नहीं।लेकिन सोते हुए हम स्वप्न में क्या देखेंगे, यह फैसला नहीं कर सकते। स्वप्न झूठे होकर भी सच से कम नहींलगते।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं, वे अवचेतन मन में आ जाती हैं। फिर कुछ समय बाद वे अचेतन मन में चली जाती हैं। भले ही हम उन्हें भूल जाएं, वे नष्ट नहीं होतीं। फ्रायडका मानना था कि अचेतन मन कबाडखाना है, जहां सिर्फ गंदी और बुरी बातें पडी होती हैं, पर भारतीय विचारकों का मानना है कि संस्कार के रूप में अच्छी बातें भी वहां जाती हैं।
अचेतन एक प्रकार का निष्क्रिय मन है। यहां कुछ नहीं होता। यह भंडार गृह है। हमारा अवचेतन या चेतन मन जब इन वस्तुओं [विचारों] में से किसी की मांग करता है, तब अचेतन मन उसकी सप्लाई कर देता है।
निष्क्रिय होकर भी अचेतन मन में कुछ न कुछ उबलता-उफनता रहता है, जो हमारे व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आता है। हम भले ही अचेतन मन की उपेक्षा करें, लेकिन चेतन मन और अवचेतन मन जो कुछ भी करते हैं, वे सब वही करते हैं, जो अचेतन मन उनसे कराता है।
फ्रायडने बिल्कुल सही कहा था कि मन एक हिमखंड की तरह होता है, जिसका 10प्रतिशत हिस्सा ही ऊपर दिखाई देता है। 90फीसदी भाग तो पानी के अंदर छिपा होता है। इसी तरह युंगने भी कहा था - ज्ञात मन [चेतन] तो केवल छोटे से द्वीप के समान है, पर चारों तरफ फैला महासागर अज्ञात [अचेतन] मन है। यही अज्ञात मन सब कुछ है।

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