Thursday, March 1, 2012

वक्त की बर्बादी अपराध है...

मां-बाप बच्चे के दोस्त बनें। उसे फ्री छोड़ दें। उसे राय दें , लेकिन कोई भी बात थोपें नहीं। उसके साथ क्वॉलिटी टाइम शेयर करें। बच्चे के साथ रहें। एक हफ्ते की छुट्टी ले लें और बच्चे के साथ टाइम बिताएं। कई बार मां-बाप दोनों काम पर चले जाते हैं और बच्चा घर में अकेला रह जाता है। ऐसे में अकेलेपन में उसे तमाम खराब खयाल आते हैं , चिंता उसके मन में घर करने लगती है और धीरे-धीरे उसे डिप्रेशन होने लगता है।
......................................................................................
समय के साथ दो बातें हमेशा ध्यान रखी जाएं, उसका आना और जाना। आते हुए समय की चुनौती को समझा जाए और गुजरते हुए वक्त के नुकसान को पकड़ा जाए। भारतीय संस्कृति ने तो समय को भी काल रूप में देव माना है। उसमें प्राण जैसी अनुभूति दी है।


समय को जीवनरूप में स्वीकार कर मान दिया है। आज का काम आज किया जाए, यह सिर्फ कहावत नहीं है, पूरा जीवन दर्शन है। कबीर ने अपनी एक पंक्ति में ‘पल में परलय’ शब्द का बहुत सही उपयोग किया है।


काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब? आज की चूक एक बहुत बड़ा धक्का है। इसकी चोट जीवन के अंतिम समय तक असर करती है। यूं तो समय बहुत हल्का होता है, हौले-हौले गुजरता है।


शीतल और सुगंधित पवन की तरह समय भी आनंद देता बीत जाता है, लेकिन विलंब और टालने की वृत्ति आते ही अपने आप को भारी बना देता है और हर अगले दिन वह अपने भार को मल्टीपल कर लेता है। इसीलिए टाले हुए काम बोझ बनकर अशांत बनाते हैं। साथ ही हमारे व्यक्तित्व को अप्रिय व आलोचनापूर्ण बना देते हैं।


भारी समय अपने साथ अंधकार भी लाता है। वक्त की बर्बादी अपराध है। ऐसे लोग खुद का समय भी नष्ट करते हैं और दूसरे के समय का महत्व भी नहीं समझ पाते। यदि समय के मामले में स्फूर्त रहना है तो हर कार्य करने के पूर्व थोड़ा शांत होकर, विश्राम मुद्रा में अपने भीतर उतरें, एक गहरे प्रकाश को पकड़ने का प्रयास करें, जो हमारे भीतर होता ही है, फिर काम करें। भीतर उतरकर मौन साधना समय का सम्मान ही होता है।

............................................................................
हमारा व्यवहार,संसार का व्यवहार है। दुनिया जैसा करती है,जैसा चाहती है,वैसा हम करने लगते हैं। इस मामले में जो लोग व्यवहारकुशल होते हैं,वे दुनिया में खूब कामयाब हो जाते हैं। इसी प्रकार हमारा स्वभाव परमात्मा का स्वभाव है।


इस बात को जितना हम ठीक से समझ लेंगे, उतना ही दूसरों के प्रति विनम्र और प्रेमपूर्ण हो जाएंगे। यह बहुत गहरा विचार है। हम यदि अपने स्वभाव को परमात्मा के स्वभाव से जोड़ लेते हैं तो वैसा ही अनुभव करने लगते हैं। आदमी वही बन जाता है जो वह अपने को मानता है। चूंकि हम एक विराट से अपने को जोड़कर रखते हैं, इसलिए हम भी विराट हो जाते हैं।


नास्तिक और आस्तिक में भेद ही यह है। आस्तिक हमेशा इसलिए मस्त रहेगा कि उसने भगवान में विश्वास ही नहीं किया है, उसने अपने आप को भगवान से जोड़ा भी है। नास्तिक के साथ आपत्ति यही है कि वह परमपिता के साथ अपने जुड़ाव को नकार देता है।


यहां मामला नैतिकता से अधिक स्वभाव का है। इसलिए स्वभाव के स्तर पर भगवान से जुड़े रहें। हम संसार में रहते हैं,परेशानियां आ ही जाती हैं,पर यदि हम भगवान से जुड़े हैं तो उस परेशानी,को गहराई में नहीं लाएंगे।


परेशानियां उतनी बड़ी नहीं होतीं,जितना मनुष्य खुद से जोड़कर उसको बड़ा बना देता है। यदि जुड़ाव परमशक्ति से है तो अपने आप संकटों से कटना हो जाएगा। हम संघर्षशील और पुरुषार्थी व्यक्ति होंगे,साथ में धार्मिक,विनम्र और विवेकशील भी रहेंगे।

...........................................................................
जीवन का दूसरा साहित्य है गीता। गीता महाभारत का एक छोटा सा हिस्सा है। जिस दिन 18 दिन का युद्ध आरंभ होने वाला था उस दिन अर्जुन थक गया तो भगवान ने पुन: अर्जुन को अपने कर्तव्य की ओर प्रेरित करने के लिए गीता का संदेश दिया था। केवल काम करने के लिए ही काम नहीं करना है। हर किए जा रहे काम के पीछे कर्तव्य, ईमानदारी और शत्प्रतिशत परिणाम लेने की तीव्र इच्छा होना चाहिए।

गीता यही सिखाती है। महाभारत युद्ध के ठीक पहले पाण्डवों के बड़ें भाई युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा था हम युद्ध हार जाएंगे, क्योंकि कौरवों के पक्ष में भीष्म, कर्ण और द्रौणाचार्य जैसे योद्धा हैं। हमारे पास क्या है? सेना भी कम है। तब अर्जुन ने समझाया था भैया युद्ध हम ही जीतेंगे, क्योंकि हमारे पास कृष्ण हैं यानी धर्म है। जहां धर्म, वहां जीत।

थोड़ी देर बाद युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण जो अर्जुन के सारथी थे, अर्जुन का रथ लेकर दोनों सेनाओं के बीच में पहुंचते हैं। अर्जुन ने जब कौरवों के पक्ष में अपने बुजुर्गों को देखा, रिश्तेदारों पर नजर डाली तो श्रीकृष्ण से कहने लगा मैं इस युद्ध को नहीं लड़ूंगा, इसमें मेरे अपने ही लोग मारे जाएंगे। तब कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं और इसी समझाइश से गीता का जन्म होता है।

कृष्ण ने कहा था मुद्दा यह नहीं है कि तुम युद्ध लड़ोगे या नहीं, हिंसा होगी या नहीं। सवाल यह है कि तुम्हारी इस निष्क्रियता से अधर्म और पाप को समर्थन मिल जाएगा। तुम्हारा कर्तव्य है गलत को रोकना और ध्यान रखो काम करते समय मैं कर रहा हूं यह भाव हटाओ, क्योंकि कर्म में यदि मैं आता है तो सफल होने पर अहंकार आ जाता है और असफल होने पर अवसाद (डिप्रेशन) आ जाता है। इसलिए शस्त्र उठाओ और युद्ध करो। तुम्हारा दायित्व है काम करना। सही काम करोगे तो परिणाम सही मिलेगा।

.......................................................................................

जीवन का एक सच यह भी है कि आदमी अपनों के ही कारण अपनों से दूर हो जाता है। जब ऐसा हो तो फिर सारी प्रकृति अपनी हो जाती है। जीवन में प्रेम आते ही सारा दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है। इस व्यापकता का नाम ही धर्म का सत्य स्वरूप है।

सच्चे धर्म का संबंध मनुष्य के सत्य के जानने से है। सच्चे धर्म की खोज मनुष्य के भीतर जो छुपा है, उसे पहचान लेने से है। मनुष्य के भीतर बहुत कुछ है। यदि नदी की तली में चट्टानें नहीं होतीं तो उसकी धाराओं में कोई संगीत भी नहीं होता।

इसी तरह मनुष्य के भीतर गहराई में उतरने पर अपनी ही पहचान का संगीत सुनाई देने लगता है। वह संगीत एक दफा पहचान लिया जाए तो वही पहचान अंत में परमात्मा की पहचान सिद्ध होती है। एक संन्यासी सारी दुनिया की यात्रा करके भारत लौटकर आया था।

उस राज्य के राजा ने संन्यासी से पूछा - क्या कहीं परमात्मा को खोज सके? संन्यासी ने उत्तर दिया - मैं इतना जान पाया हूं कि जिस दिन हम यह जान लेते हैं कि हम कौन हैं, उसी दिन हम परमात्मा को जान पाएंगे। न वह मूर्तियों में है, न वह नाम में है, न चित्र में है, न रूप में।

यह सब तो प्रवेशद्वार हैं, उन्हें लांघकर अंदर पहुंचना है। अध्यात्म मार्ग पर मन बहाने ढूंढ़ लेता है और बहाने वे कीलें होती हैं, जिनका उपयोग असफलता का मकान बनाने में होता है। फिर चाहे वह असफलता भौतिक जीवन में हो या भक्ति के जीवन में।

......................................................................

आजकल कुछ भी पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जिन्हें बिना संघर्ष के कुछ मिलता है, वे उसकी कीमत भी नहीं जान पाते। स्थितियों से संघर्ष करते-करते आदमी खुद से संघर्ष करने लगता है, फिर धीरे-धीरे अपनों से संघर्ष करने लग जाता है। यहीं से अपने और पराए का भेद शुरू हो जाता है।


नतीजा यह होता है कि सगे-संबंधियों में भेदभाव पैदा होकर घर टूट जाता है। इसलिए संघर्ष करने वालों को अपने भीतर अपनापन बनाए रखना चाहिए। अपनत्व का भाव जितना अधिक होगा, संघर्ष के दौरान संकीर्ण मनोवृत्ति उतनी ही कम होगी।



यदि ऐसा नहीं है तो जीवन में कलह का प्रवेश हो जाता है। परिवार टूटते हैं, सामाजिक एकता समाप्त होती है और देश की अखंडता पर भी इसका असर पड़ता है। इसलिए संघर्ष के दौर में अपनापन बनाए रखें।



हमारे भीतर अपनेपन की वृत्ति जागे, इसके लिए ईसाई महात्माओं का एक वचन याद रखना चाहिए - हर संत का एक अतीत होता है और हर पापी से एक भविष्य जुड़ा होता है। इस विचार को जीवन में उतारते ही हम समझ जाते हैं कि संत की स्तुति और पापी की निंदा करने में यह ध्यान रखें कि अपनेपन का भाव समाप्त न हो।



संतों की स्तुति इसलिए करते हैं कि हम उनके जैसा होना चाहते हैं और पापी की निंदा इसलिए करते हैं कि अपने अहंकार को तृप्ति मिले। अपनेपन का भाव आते ही हमारी दृष्टि बदल जाएगी और हम अपने संघर्ष को उत्सव का रूप दे सकेंगे।

No comments: